Friday, 21 February 2014

झारखंडी और गैर-झारखंडी का बढ़ता विवाद, कारण और निवारण





झारखंड गठन के साथ ही यहां स्थानीयता का सवाल एक ज्वलंत मुद्दा बनकर उभरा , आंदोलन हुई , जिसमें कई लोगों की जानें भी गई। इस आंदोलन ने झारखंडी और गैर - झारखंडी , भीतरी और बाहरी तथा आदिवासी और गैर - आदिवासियों के बीच गहरा खाई खोद दिया। दुःखद बात यह है कि राज्य गठन के 14 वर्षों के बाद भी सरकार स्थानीय नीति नहीं बना सकी। फलस्वरूप , यह मुद्दा एक बार फिर से आग की तरह धधकने लगा है। एक तरफ आदिवासी और मूलवासी लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि झारखंड किसके लिए बना था ? क्या झारखंड का गठन बाहरी लोगों के हितों की रक्षा के लिए किया गया है ? और कब झारखंडियों को न्याय मिलेगा ? वहीं देश के दूसरे राज्यों से झारखंड में आकर बसे गैर - आदिवासी लोग सवाल पूछ रहे हैं कि क्या झारखंडी होने के लिए आदिवासी होना जरूरी है ? क्यों आदिवासी लोग उन्हें अपने बड़े भाई की तरह स्वीकार नहीं करते हैं ? क्या आदिवासी और गैर - आदिवासियों के बीच विभेद कभी समाप्त होगा ? झारखंडी और गैर - झारखंडी , बाहरी और भीतरी तथा आदिवासी और गैर - आदिवासी के बीच चला रहा विभेद के कुछ ठोस कारण है , जिसका निवारण ही इस विवाद का स्थायी समाधान है। 

History of the Nakarna
Supreme Court of the 5th January , 2011 के अपने एक फैसले में कहा कि आदिवासी लोग ही इस देश के असली निवासी और मालिक है। लेकिन आदिवासियों को आदिवासी होने से नाकारना और भारत के इतिहास में उन्हें गौण कर उनके साथ सबसे बड़ा अन्याय किया गया। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के बारे में यह बताया जाता है कि 1857 ही आजादी की पहली लड़ाई थी जबकि बाबा तिलका मांझी के नेतृत्व में 1783-84 में अंग्रजों के खिलाफ पहली लड़ाई हुई , जिसमें बाबा तिलका मांझी ने भागलपुर के क्लेक्टर अगस्तुस क्लाईलॉर्ड को तीर - धनुष से मार गिराया था। फलस्वरूप , उसे फांसी पर लटकाया गया। इसके बाद देश के अलग - अलग हिस्सो में आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। इसी तरह 1855 में संताल हुल हुआ। लेकिन चूंकि ये आंदोलन आदिवासियों के नेतृत्व में हुए इसलिए इन्हें इतिहास में नाकार दिया गया। इसी तरह अब झारखंड आंदोलन के बारे में भी कहा जा रहा है कि सभी ने मिलकर आंदोलन किया , जो कुछ हद तक सही भी है लेकिन इसे कैसे नाकारा जा सकता है कि झारखंड की मांग सबसे पहले आदिवासियों ने की और उसकी रूपरेखा भी उन्होंने ही तैयार किया , जिसमें नेतृत्वकर्ता बहुसंख्यक ईसाई आदिवासी थे फलस्वरूप , झारखंड आंदोलन को ईसाई मिश्नरियों का अलगावादी आंदोलन कहा गया। लेकिन अब उन्हें नाकारने का जोरो से प्रयास चल रहा है। झारखंड राज्य के गठन का विरोध करनेवाले लोग अब झारखंडी बनने का प्रयास में जुटे हैं।

संविधान , कानून और पारंपरिक अधिकार पर हमला
भारत के संविधान में आदिवासियों के लिए पांचवी एवं छठवीं अनुसूची के रूप में विशेष प्रावधान किया गया है , जिसे संविधान के अंदर लघु संविधान कहा जाता है। इसी तरह उनके सरंक्षण हेतु कई कानून बनाये गये है एवं उनको पारंपरिक अधिकार भी हासिल है। लेकिन झारखंड राज्य के गठन के बाद ऐसा देखा गया है कि बाहरी गैर-आदिवासियों के द्वारा उनके संवैधानिक, कानूनी और पारंपरिक अधिकारों पर चारो तरफ से हमला किया गया है। राज्य के कई हिस्सों से पांचवी अनुसूची क्षेत्र को खत्म करने, छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908, संताल परगना काश्तकारी अधिनियम 1949 एवं पेसा कानून 1996 को असंवैधानिक घोषित करने के लिए राजनैतिक प्रयास, जन अभियान और कानूनी दावपेंच का सहारा लिया गया। जबकि आदिवासी लोग छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम एवं संताल परगना काश्तकारी अधिनियम को अपना विरासत मानते हैं और पेसा कानून को पारंपरिक अधिकार दिलाने वाला कानून।

इतना ही नहीं छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 एवं संताल परगना काश्तकारी अधिनियम 1949 के कड़ा प्रावधान होने के बावजूद आदिवासियों से उनकी लाखों एकड़ जमीन गैर - कानूनी तरीके से छिन लिया गया और जब उन्होंने भूमि वापसी हेतु न्यायालय का दरवाजा खटखटाया तो न्याय की कुर्सी पर बैठे व्यक्ति को ही खरीद लिया गया। वहीं दूसरी ओर संविधान के अनुच्छेद 19 का सहारा लेते हुए यह तर्क दिया जाता है कि देश का कोई भी व्यक्ति देश के किसी क्षेत्र में जीवन बसर कर सकता है। लेकिन वहीं लोग उसी संविधान के अनुच्छेद 19 ;5 द्ध को सिरे से खरिज कर देते हैं , जहां यह प्रावधान किया गया है कि आदिवासियों के संरक्षण हेतु आदिवासी क्षेत्रों में बाहरी जनसंख्या को आने पर रोक। 

Displacement of the pain, the understanding of the preparation is
यह बात किसी से छुपी नहीं है कि ' आर्थिक तरक्की और विकास ' के नाम पर पिछले 65 वर्षों से झारखंड के लागभग 65 लाख लोग विस्थापित और प्रभावित हुए है। लेकिन विकास का स्वाद उन्होंने कभी चखा ही नहीं। विस्थापित लोगों में अधिकांश लोग आदिवासी समुदाय के हैं। बावजूद इसके आज जब वे लोग तथाकथित विकास परियोजनाओं के लिए जमीन नहीं देना चाहते हैं तो बाहरी लोग उन्हें विकास विरोधी कहते हैं और सरकार उनपर दमन करती है। प्रश्न यह है कि अगर आदिवासियों की जमीन डूबाकर सिंचाई परियोजना लगाया गया तो उक्त परियोजना से सबसे पहले किसका खेत सींचा जाना चाहिए ? आदिवासी गांवों को डूबा कर बिजली उत्पादन करने हेतु डैम बनाया गया है तो आदिवासी गांवों में बिजली क्यों नहीं है ? आदिवासी इलाको में खनन किया जा रहा है तो अबतक आदिवासियों को बेहतर शिक्षा , स्वास्थ्य सुविधा , पानी , सड़क और बिजली से क्यों दूर रखा गया है ? क्यों ये गैर - आदिवासी लोग आदिवासियों के साथ इन मुद्दों पर संघर्ष करने को तैयार हैं ? क्यों गैर - आदिवासियों ने नगड़ी आंदोलन का साथ नहीं दिया ? क्यों वे विकास की बड़ी - बड़ी बाते करते हैं जब उन्होंने इसके लिए एक इंच जमीन नहीं दिया है ?  

Language , culture and tradition to accept
झारखंड एक संस्कृतिक राज्य है , जहां समुदायिकता , समानता और भाईचारा पर आधारित विशिष्ट संस्कृति और पारंपरा है। यहां आदिवासी और मूलवासियों का अपना भाषा भी है। लेकिन बाहर से आये हुए लोग यहां की भाषा , संस्कृति और पारंपरा को दूसरे दर्जे का बताकर उसके उपर अपनी भाषा , संस्कृति और पारंपरा थोपने की कोशिश करते रहे हैं। वे यहां की भाषाओं को स्वीकार करने के बजाये राज्य में अपनी - अपनी भाषा के अधिकार की मांग करते रहते हैं। इसी तरह वे यहां की संस्कृति और पारंपरा को भी नहीं मानते है , जो झारखंडी और गैर - झारखंडी के बीच विभेद पैदा करता है। वे छठ पूजा तो करते हैं लेकिन सरहुल और करमा पूजा हो हीन दृष्टि से देखते हैं। ये लोग दूसरे राज्यों में वहीं की भाषा , संस्कृति और परंपरा को स्वीकार करते हैं लेकिन झारखंड में वे ऐसा नहीं करते हैं। ऐसी स्थिति में झारखंडी लोग उन्हें क्यों स्वीकार करेंगे ? कोई भी राज्य में वहां के लोगों के साथ घुलमिलकर रहने के लिए वहीं की भाषा संस्कृति और परंपरा को मानना बहुत ही जरूरी होता है।

Tribals of the banknotes of the spoils
संविधान के अनुच्छेद 275 के तहत केन्द्रीय सहायता प्राप्त करना आदिवासियों का अधिकार हैै। झारखंड में 13 जिले पूर्ण रूप से एवं गोड्डा जिले के सुन्दरपहाड़ी तथा बुआरीजोर और गढ़वा जिले के भंडरिया प्रखंड ट्राईबल सब - प्लान के तहत आते हैं। ट्राईबल सब - प्लान के तहत वर्ष 2006-07 से लेकर वर्ष 2011-12 तक आदिवासियों के विकास एवं कल्याण के लिए कुल 27,141.83 करोड़ रूपये आवंटित किया गया , जिसमें से 21,494.02 रूपये खर्च किया गया एवं 5647.81 रूपये केन्द्र सरकार को वापस कर दिया गया। सरकार द्वारा जारी दिशा - निर्देश के अनुसार ट्राईबल सब - प्लान का पैसा का उपयोग दो तरह से किया जाना है - आदिवासी को व्यक्तिगत लाभ एवं आदिवासी बहुल इलाके का विकास हेतु खर्च। ट्राईबल सब - प्लान के पैसे से गैर - आदिवासी अफसरों का खजाना भरा गया और आदिवासियों का सिर्फ नाम चढ़ाया गया। आदिवासी लोग इसे कैसे स्वीकार कर सकते है ?

हकीकत यह है कि झारखंड में आदिवासी और मूलवासियों के बीच कभी कोई विवाद नहीं रहा है , लेकिन जब से यहां बाहरी जनसंख्या जिन्हे '' दिकू '' कहा गया का आगमन बाढ़ की तरह हुई , यहां की सामाजिक और संस्कृतिक ताना - बाना ही टूट गई। आदिवासियों ने यह मान लिया कि बाहर से आये हुए लोग उन्हें लूटने के लिए ही आये हैं क्योंकि उन्हें चारों तरफ से लूटा ही गया है। ऐसी स्थिति में अगर इस खाई को पाटना है तो आदिवासियों के लिए बनाये गये विशेष संवैधानिक प्रावधान , छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम , संतालपरगना काश्तकारी अधिनियम , पेसा कानून और वनाधिकार जैसे कानूनों पर हमला करने के बजाये गैर - आदिवासियों को उन्हें लागू करने की मांग करनी होगी और आदिवासियों को विकास विरोधी कहने के बजाये उनके जायज विस्थापन आंदोलनों को साथ देना होगा। आदिवासियों के साथ मानवीय व्यवहार कायम करते हुए उन्हें न्याय दिलाने का प्रयास करना होगा और आदिवासी नेतृत्व पर भी हमला बंद करना होगा तभी बात बन सकती है।


- ग्लैडसन डुंगडुंग मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं।  

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