न्याय व्यवस्था और सरकारी तंत्र से जुड़े लोग दलित महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों के प्रति संवेदनशील बने। समाज के हर वर्ग और जाति के लोगों को अपने परंपरागत सोच के दायरे से बाहर निकलकर दलित महिलाओं को समाज के हर वर्ग और जाति के लोगों को अपने में व्याप्त परंपरागत कुरीतियों को तोड़ने के सतत् प्रयास करने होंगे। साथ ही जब दलित महिलाएं शिकायत लेकर आये जिनमें आगे चलकर बड़ी घटना होने संभावना हो उसी वक्त उस शिकायत को गंभीरता से लिया जाए।
पटना।
भारत युगों से
अनुसूचित जाति एवं
जनजाति के लोग
जातिगत हिंसा, आर्थिक शोषण, अत्याचार, अपमान, साधनहीनता, भूख, गरीबी
और यातनाओं के
शिकार होते रहे
हैं और अगर
बिहार की बात
करें तो यहां
की सामाजिक व्यवस्था
ऐतिहासिक रूप से
जाति और वर्ग
के आधार पर
विखंडित रही है,
जिसका असर मूलरूप
से दलित और
महादलित समुदायों पर पड़ा
है। उच्च वर्ग
और समर्थ लोगों
के अत्याचार और
भेदभाव पूर्ण व्यवहार के
कारण दलित वर्ग
हमेशा शोषित और
साधन विहीन रहा
है। वैसे तो
इस शोषण का
असर पुरूष और
महिला दोनों पर
पड़ा है, परन्तु
दलित महिलाएं कई
प्रकार से प्रभावित
हुई हैं। एक
तरफ वे दलित
होने के कारण
पितृसत्तात्मक वर्ग व्यवस्था
से संघर्ष कर
रही हैं तो
दूसरी ओर असंवेदनशील
न्याय व्यवस्था इन्हें
सहयोग नहीं देती
है। आमतौर पर
लगभग 140 तरीकों से दलितों
पर हिंसा की
जाती हैं। दलित
महिलाएं शोषित,गरीब और
कमजोर वर्ग से
हैं और उनमें
प्रतिकार की क्षमता
कमतर समझी जाती
है, इसलिए उनके
प्रति हिंसा भी
बेधड़क की जाती
है।
पितृसत्तात्मक
समाज में महिलाओं
को दोयम दर्जा
प्राप्त है, पितृसत्ता
हर जाति और
वर्ग में महिलाओं
की सामाजिक स्थिति
को कमजोर बनाये
रखने में अहम्
भूमिका निभाता रहा है।
परम्परागत व्यहारों और लिंग
आधारित भेदभाव के माध्यम
से महिलाएं हमेशा
से हाशिए पर
रही है। जहां
तक दलित महिलाओं
का सवाल है,तो एक
महिला,गरीब एवम्
दलित होने के
नाते उनकी स्थिति
और भी नाजुक
होती है। सरकारी
आकड़ों के अनुसार
बिहार में सन्
2012 में कुल 4950 घटनाएं, अनुसूचित
जाति एवं जनजाति
(अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 के
तहत दर्ज की
गयी,जिससे से
191 केवल दलित महिलाओं
पर हुए बलात्कार
की घटनाएं थीं।
इसके अलावा भी
कई और प्रताढ़नाएं
जैसे घरेलू हिंसा,
दहेज प्रताड़ना, राजनीतिक
हिंसा और डायन
का इल्जाम लगाकर
प्रताड़ित करना जैसी
अनगिनत घटनाएं इनके जीवन
का हिस्सा हैं।
लेकिन इन घटनाओं
के सही-सही
आंकड़े उपलब्ध नहीं
हैं, क्योंकि केवल
एक तिहाई से
भी कम महिलाएं
शिकायत निवारण प्रणाली तक
पहुंच पाती हैं।
समधान हेतु संवैधानिक एवं व्यवस्थागत कवायदें
भारत
के संविधान के
अनुच्छेद 17 द्वारा अस्पृश्यता का
अंत किया गया
तथा अनुच्छेद 366,341 व
342 में अनुसूचित जाति और
अनुसूचित जनजाति को परिभाषित
कर व्याख्या की
गयी। इस वर्ग
को शोषण और
अत्याचार से मुक्त
कराने के उद्देश्य
से सन् 1989 में
संसद द्वारा अनुसूचित
जाति एवं जनजाति
(अत्याचार निवारण) अधिनियम,1989 पारित
किया गया। इस
कानून के अंतर्गत
विशिष्ठ न्यायालयों का गठन
करने का प्रावधान
किया गया। कानून
बनने के लगभग
दो दशक बाद,हाल ही
में बिहार के
5 जिलों (पटना, मुजफ्फरपुर,गया,भागलपुर एवं बेगूसराय)
में दलितों के
लिए विशिष्ठ न्यायालयों
की स्थापना की
गयी है। इसके
अतिरिक्त , दलित उत्पीड़न
के दर्ज केसों
के त्वरित निराकरण
के लिए बिहार
में सर्वाधिक (184) फास्ट
ट्रैक न्यायालयों का
गठन किया गया।
बावजूद इसके, लगभग 80 हजार
केस आज भी
विचाराधीन हैं। अतः
इस तरह के
न्यायिक ढांचे ज्वलंत समस्याओं
के लिए अल्पकालीन
निवावरण मात्र हैं और
इन ढांचों में
दलित महिलाओं के
समुचित सहभागिता के लिए
कोई उचित स्थान
नहीं बनाया गया
है।
घरेलू
हिंसा से महिलाओं
की सुरक्षा के
लिए कई वर्षों
के अथक प्रयास
के बाद सन्
2005 में घरेलू हिंसा से
महिलाओं का संरक्षण
अधिनियम (पीडब्ल्यूडीवीए) पारित किया गया।
हालांकि इस विधेयक
को लागू करने
के लिए व्यापक
नियम बनाये गये
परन्तु इन नियमों
का पालन बिहार
में केवल महिला
हेल्प लाइन के
माध्यम से किया
जा रहा है।
इस कानून के
प्रचार-प्रसार तथा ग्रामीण
क्षेत्रों में महिलाओं
तक पहुंच बनाने
की कोशिश न
के बराबर की
गयी है। ग्रामीण
स्तर पर ज्यादातर
घरेलू हिंसा के
मामले में पंचायती
राज व्यवस्था के
तहत बने ग्राम
कचहरी में दर्ज
किये जाते हैं।
एक तरफ जहां
महिलाओं के प्रति
हिंसा में बढ़ोतरी
हुई है वहीं
दूसरी तरफ दलित
महिलाओं को सशक्त
बनाने का प्रयास
भी किये गये
हैं। इलित महिलाओं
की दशा में
सुधार लाने तथा
उन्हें सम्मानित जीवन प्रदान
करने के लिए
हमें बहुआयामी कदम
उठाने होंगे। यह
जरूरी है कि
आम जनता तथा
न्याय व्यवस्था और
सरकारी तंत्र से जुड़े
लोग दलित महिलाओं
पर हो रहे
अत्याचारों के प्रति
संवेदनशील बने। समाज
के हर वर्ग
और जाति के
लोगों को अपने
परंपरागत सोच के
दायरे से बाहर
निकलकर दलित महिलाओं
को समाज के
हर वर्ग और
जाति के लोगों
को अपने में
व्याप्त परंपरागत कुरीतियों को
तोड़ने के सतत्
प्रयास करने होंगे।
साथ ही जब
दलित महिलाएं शिकायत
लेकर आये जिनमें
आगे चलकर बड़ी
घटना होने संभावना
हो उसी वक्त
उस शिकायत को
गंभीरता से लिया
जाए। इसके अतिरिक्त
दलित महिला के
केसों की त्वरित
सुनवाई के
लिए अनुसूचित जाति , अनुसूचित
जनजाति एवं अल्पसंख्यक
थाना के अन्तर्गत
अलग से सेल
बनाए जाएं जहां
महिला पदाधिकारी नियुक्त
हो साथ ही
पीड़िता के उचित
पुनर्वास की व्यवस्था
की जाए।
आलोक कुमार