फतेहपुर।
मजदूरी मशक्कत
करने के
बाद फुर्सत
की संध्या
में। गुरपा
के घनघोर
जंगल में
रहने वाले
वनवासी घर
से आर्कषक
परिधान धारण
करके निकले।
मांदर , नगाड़ा , झाल आदि
की धुन
में वनवासी
खूब झूमे
और नाचे - गाए। यह
सिलसिला देर
रात तक
जारी रही।
पूजा
के बाद
महिलाओं ने
फूल से
अपने जूड़े
को सजाया
तथा नया
फल कटहल , महुआ , सहजन
आदि का
आहार लिया।
सिरका मुंडा
का कहना
है कि
यह सरहुल
प्रकृति का
पर्व है।
नये साल
के सूचक
भी है।
प्रकृति को
ही भगवान
मानने वाले
सरना धर्मावलम्बियों
के लिए
खास दिन
है। वैसे
तो इसे
तमाम आदिवासी
धूमधाम से
मनाते हैं।
इस अवसर
पर वनवासी
खूब झूमे
और मस्ती
किए। एकदूजे
के साथ
थिरकना आनंद
प्रदान करता
है। विभिन्न
तरह के
नृत्य किया
जाता है।
सयाने लोग
नृत्य करते
हैं तो
छोटे बच्चे
बैठकर निहारते
हैं और
खुशी का
इजहार करते
हैं। उनके
द्वारा नृत्य
के दौरान
लिए गए
स्टेप पर
नजर रखते
हैं ताकि
भविष्य में
नृत्य करने
के लिए
तैयार हो
सके।
इन
आदिवासियों को गम है कि
हमलोग समाज
के किनारे
रहते हैं।
खुद ही
आयोजन करते
और खुद
ही मजा
लेते हैं।
अगर इसे
बड़े पैमाने
पर आयोजन
किया जाए
तो प्रकृति
के महत्व
और एकदूजे
के बीच
एकता का
महत्व समझा
और बुझा
जा सकता
है। उम्मीद
है कि
गुरपा जंगल
में रहने
वाले आदिवासियों
के उत्थान
करने में
पीछे नहीं
रहेंगे।
मालूम
हो कि
गया जिले
के नक्सली
प्रभावित फतेहपुर
प्रखंड में
कठौतिया केवाल
पंचायत है।
जो बिहार
और झारखंड
राज्य के
सीमा पर
अवस्थित है।
इस पंचायत
के अलखोडहा
आदिवासी टोला
नामक गिद्धनी
गांव है।यहीं
पर अनुसूचित
जनजाति के
लोग ठौर
जमा लिए
हैं। अलखोडहा
आदिवासी टोला
में ही
9 आदिवासी टोला है। विभिन्न तरह
की समस्याओं
से दो - दो हाथ
होने के
बाद सरकार
और गैर
सरकारी संस्था
के सहयोग
से आदिवासी
टोलों का
कायाकल्प होने
लगा है।
Alok
Kumar
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