मालिकों के बंधन में बंधुआ मजदूर
नासरीगंज बिस्कुट
फैक्ट्री
के
पास
मुसहरी
है।
इस
मुसहरी
में
बंधुआ
मजदूर
बनने
की
फैक्ट्री
है।
यहां
पर
प्रत्येक
घर
में
बंधुआ
मजदूर
मिलता
है।
महादलित
मुसहर
नासरीगंज
के
मालिकों
के
पास
बंधुआ
मजदूर
की
तरह
रहते
हैं।
महज
50 रू.
की
बढ़ोतरी
कर
देने
के
कारण
बंधुआ
मजदूर
ने
अपने
पूराने
मालिक
से
रिश्ता
तोड़
दिया।
जो
बकायी
राशि
थी
उसे
नये
मालिक
से
लेकर
चुख्ता
कर
दिये।
आजादी के
65 साल के बाद
भी आजतक
कोई मैट्रिक
उर्त्तीण नहीं
हो सका
हैं। वहीं
इस समय
किसी तरह
की संभावना
भी नहीं
दिखायी दे
रही है
कि कोई
बच्चे मैट्रिक
पास कर
पाएंगे। इसी
के कारण मालिक के चंगुल में
आसानी से
फंस जाते
हैं। यहां
पर ऐसा
कोई वंदा
नहीं है
जो मालिकों
से कर्ज
न लिये
हो। कर्ज
लेने से
मालिक के
बंधन में
रहने लगते
हैं। हद
तो उस
समय हो
जाता है
कि एक
मालिकों का कर्ज
चुकाने के
लिए दूसरे
मालिक से कर्ज
लेना पड़ता
है। तब
जाकर मालिक
के फंदे
से मुक्त
होते हैं।
यहां पर
यह कहावत
ताड़ से
गिरा खजूर
पर अटका
सटिक बैठ
रहा है

दानापुर प्रखंड
कार्यालय के
कुछ ही
दूरी पर
नासरीगंज बिस्कुट
फैक्ट्री के
पास मुसहरी
है। दानापुर
प्रखंड के
प्रखंड विकास
पदाधिकारी और
अंचलाधिकारी के
अनदेखी रवैये
से महादलित
मुसहर समुदाय
के विकास
और कल्याण
नहीं हो
पा रहा
है। हालांकि
राजधानी से
काफी दूर
नहीं है।
महादलितों ने
जरूर ही
केन्द्र और
राज्य की
सरकार बनाने
में योगदान
किये हैं।
मगर किसी
राजनीति पार्टी
कांग्रेस,जनता
दल,राजद
और अभी
एन.एन.डी.सरकार
की ओर
से विशेष
ध्यान नहीं
दिया गया
है। तब
भी महाजन
के पास
बंधुआ मजदूर
बनने को
बाध्य हैं।
हां जी,
यहां पर
आज भी
मालिकों के
बंधन में
बंधुआ मजदूर
हैं। रूबी
देवी का
मायका दीघा
मुसहरी में
है। रूबी
की शादी
हुई है।
बंधुआ मजदूर
की पत्नी
रूबी देवी
का कहना
हैं कि
हमलोग महादलित
मुसहर समुदाय
काफी कष्ट
में रहते
हैं। यहां
पर हमलोग
1975 की बाढ़ से
विस्थापन होने
के बाद
किसी दाता
के द्वारा
32 करकट वाला घर
बना दिया
गया। महादलितों
की जनसंख्या
करीब 400 है।
जनसंख्या में
बढ़ोतरी हो
ने जमीन
और घर
कम पड़
गया। स्थानाभाव
के कारण
निर्मित घर
के सामने
ही छोटा-छोटा घर
बना लिया
गया है।
इसी सुअर
के बखौरनुमा
घर में
किसी तरह
से मुसहर
रहने को
बाध्य हैं।
रूबी देवी कहती हैं कि उनके पतिदेव उमेश मांझी हैं। मालिकों के घर में काम करते हैं। मालिकों का नाम प्रदीप सिंह है। दुःख दर्द में सहायक बनते थे। प्रसव के समय में मालिकों से रकम ली गयी जाती थी। हर प्रसव में एक हजार रूपये की दर से 7000 रू0 बकाया हो गया। इसका मतलब उमेश मांझी 7 साल से अधिक दिनों से मालिकों के पास काम करता था। 7 बच्चों में सिर्फ 2 ही बच रहा है। मालिकों के पास काम करने के एवज में सिर्फ 100 रू0 दिया जाता था। किसी तरह से 2 हजार लेनदारी को खत्म कर दिया गया। इसके बाद मालिकों बदलने के लिए अविनाश सिंह से 5 हजार रू0 लेकर उमेश मांझी प्रदीप सिंह के रकम वापस कर दिये। इसके बाद अब अविनाश सिंह के बंधन में आकर बंधुआ बन गये। इनके द्वारा 150 रू0 मजदूरी दिया जाता है। सोहन मांझी भीम सिंह के पास बंधुआ मजदूर हैं। अशोक मांझी भी बंधुआ मजदूर हैं। सभी ने कहा कि प्रायः हरेक घर के लोग मालिकों के जाल में फंसे हुए हैं।
वर्ष 1976 में ही
बंधुआ मजदूरी
के खात्मे
के लिए
बंधित श्रम
पद्धति अधिनियम
देश में
लागू है
और इस
कानून का
उल्लंघन करने
पर नियोजकों
को जेल
भेजने का
भी प्रावधान
है। इस
कानून के
लागू करने
के 37 के
बाद भी
काफी संख्या
में बंधुआ
मजदूर हैं।
वर्ष 2008-2009 में
425 बंधुआ मजदूर,वर्ष
2009-2010 में 200 बंधुआ मजदूर
और वर्ष
2010-2011 में 580 बंधुआ मजदूरों
की पहचान
कर उनके
पुनर्वास पर
राशि आंवटित
की गयी।
बंधुआ मजदूरों
की पहचान
और पुनर्वास
पर करोड़ों
की राशि
खर्च करने
पर कोताही
नहीं बरती
जा रही
है। फिर
भी अनेकों
बंधुआ मजदूरों
की पहचान
ही नहीं
की जा
सक रही
है।
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