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तमिलनाडु.पहले तमिलनाडु और वर्तमान में कन्याकुमारी जिले के विलवनकोड तहसील के नाट्टालम गाँव के एक हिन्दु परिवार में धन्य देवसहायम पिल्लई का जन्म 1712 में हुआ.जन्म के 310 साल के बाद नाट्टालम गाँव में जश्न का माहौल है.आज रविवार 15 मई, 2022 को धन्य देवसहायम पिल्लई 'संत' बनेंगे.इसके साथ ही भारतीय संतों के श्रेणी में आ जाएंगे.इस बीच संत पापा फ्राँसिस ने अपने प्रशासन काल में कुल 909 संतों की आधिकारिक घोषणा की है. इस आंकड़े में 813 "ओट्रेंटो के शहीद" शामिल हैं, जो 1480 में दक्षिणी इटली शहर में मारे गए थे और 2013 में संत घोषित किए गए.
देवसहायम पिल्लई का जन्म तमिलनाडु के वर्तमान कन्याकुमारी जिले के विलवनकोड तहसील के नाट्टालम गाँव के एक हिन्दु परिवार में 1712 में हुआ.उनके पिता वासुदेवन नम्पूतिरि नामक ब्राह्मण थे और उनकी माता देवकी अम्माल नायर समुदाय की स्त्री थी. बचपन में उनका नाम नीलकण्ठन था और लोग उनको ’नीलम’ पुकारते थे.नायर समुदाय के लोग उस समय के समाज के प्रतिष्ठित लोगों में थे. ट्रावनकोर राज्य के राजा, राज्य के ज़्यादातर अधिकारी और सैनिक नायर समुदाय के ही थे. उस समुदाय की परम्परा के अनुसार बच्चे माता के समुदाय के नाम से जाने जाते थे.नीलम ट्रावनकोर राजा के राजमहल में काम करते थे और राजमहल में उच्च स्तर पर काम करने के कारण लोग उनके नाम के साथ ’पिल्लई’ जोड़ कर बुलाते थे. उनके पिता नाट्टालम के शिव मंदिर के पूजारी थे.
संस्कृत, तमिल और मलयालम भाषा के अतिरिक्त उन्हें युद्घ का भी प्रशिक्षण प्राप्त हुआ. नीलम पिल्लई युद्ध में निपुण थे; साथ ही राजमहल की सम्पत्तियों की देखरेख की जिम्मेदारी भी उन्हें सौंपी गयी थी.वे राजा और राजमहल के अधिकारियों के प्रिय थे.वे हिन्दु धर्म को मानते थे और मंदिर और घर में हिन्दु देवी-देवताओं की पूजा करते थे.उनका विवाह उन्हीं के समुदाय भार्गवी अम्माल के साथ हुआ.
सन 1741 में डच सेना ने ट्रावनकोर पर आक्रमण किया. उनका विचार ट्रावनकोर में एक डच कॉलनी बनाने का था. शुरू में कोलच्चल में उन्हें सफलता हासिल हुयी, परन्तु बाद में राजा मार्तान्डवर्मा की सेना ने डच सेना को हरा कर के कर्नल दे लान्नोय (De Lannoy) और उनके साथ 23 सैनिकों को बंदी बना दिया.राजा ने उन्हें मृत्यु और राजा की सेना में शामिल होने के बीच चयन करने का मौका दिया. वे राजा की सेना में शामिल हो गये.
राजा ने यह निर्णय लिया कि इन यूरोपीय सैनिकों की सहायता से अपनी सेना का आधुनीकरण करें ताकि अपने राज्य को और विस्तृत बना सकें.नीलम पिल्लई राजा की सेना के एक प्रमुख अधिकारी थे. धीरे-धीरे नीलम और दे लान्नोय के बीच दोस्ती शुरू हुयी. दे लान्नोय ने राजा के सैनिकों तथा राजा के अंगरक्षकों को अच्छा प्रशिक्षण दिया. इस पर प्रसन्न हो कर राजा ने दे लान्नोय को राजमहल में तैनात सैनिकों के अधिकारी का पद प्रदान किया. दे लान्नोय ने उन सैनिकों को इतना अच्छा प्रशिक्षण दिया कि राजा ने मदुरई के सैनिक दल को वापस भेजा जिस के लिए अब तक वे हर महीने साठ हजार रुपये दे रहे थे.
कर्नल दे लान्नोय और नीलम के बीच दोस्ती दृढ़ बनती गयी. नीलम के जीवन में कई अप्रिय घटनाएं हुयी और उन्हें अपनी सम्पत्ति भी खोनी पड़ा। विभिन्न प्रकार की परेशानियों के बीच नीलम बहुत चिन्तित थे.उन्होंने अपने दोस्त दे लान्नोय को अपनी परेशानियों के बारे में बताया.नीलम ने बताया कि हर प्रकार की पूजा करने के बाद भी उनको बहुत-सी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा था. दे लान्नोय का ख्रीस्तीय विश्वास बहुत ही गहरा था.उन्होंने सब कुछ ध्यान से सुनने के बाद नीलम को बाइबिल के योब के ग्रन्थ की घटनाओं का विवरण सुनाया. नीलम ने ध्यान से सब कुछ सुना.योब के व्यक्तित्व का नीलम के ऊपर बहुत प्रभाव पड़ा. तत्पश्चात वे दोनों बार-बार धार्मिक शिक्षाओं पर चर्चा करते थे.आगे चलते नीलम ने बपतिस्मा ग्रहण कर एक ख्रीस्तीय विश्वासी बनने की इच्छा प्रकट की. ट्रावनकोर राज्य में तब ख्रीस्तीय बनाना कानून के विरुद्ध था.
इसलिए दे लान्नोय ने एक चिट्ठी दे कर नीलम को वडक्कनकुलम के नेमान मिशन में सेवारत येसु समाजी फादर जोवान्नी बपतिस्ता बुत्तारी के पास भेजा.नीलम को मालूम था कि राजमहल में सेवारत किसी अधिकारी को ख्रीस्तीय विश्वास अपनाने पर उसे मृत्युदण्ड भी दिया जा सकता है.
नीलम तुरन्त ही बपतिस्मा लेना चाह रहे थे.परन्तु फादर बुत्तारी ने नीलम के उद्देश्य की परीक्षा लेने तथा उन्हें धर्मशिक्षा देने के लक्ष्य से इंतजार करने की सलाह दी, लेकिन यह नहीं बताया कि उन्हें कितने समय तक इंतजार करना पडे़गा.नीलम ने ख्रीस्त के नाम पर न केवल बपतिस्मा लेने, बल्कि मरने के अपने दृढ़संकल्प को भी फादर बुत्तारी के सामने प्रकट किया.नौ महीनों के इंतजार के बाद 14 मई 1745 को फादर बुत्तारी ने नीलम को बपतिस्मा दिया. तब नीलम 32 साल के थे. बपतिस्मा के समय नीलम को ’देवसहायम’ नाम दिया गया.यह लाजरुस नाम का तमिल अनुवाद है.
बपतिस्मा के बाद उन्होंने अपनी पत्नी को भी ख्रीस्तीय धर्मशिक्षा दे कर ख्रीस्तीय बनने के लिए प्रेरित किया.शुरुआती हिचहिचाहट के बाद भार्गवी अम्माल ने बपतिस्मा ग्रहण कर ’ज्ञानापू’ नाम स्वीकार किया, जो तेरेसा नाम का तमिल अनुवाद है. देवसहायम ने राजा के सामने सेना की क्रिश्चियन बटालियन में शामिल होने की इच्छा प्रकट की.आगे चल कर उन्होंने सेना के कई सैनिकों को ख्रीस्तीय धर्म अपनाने के लिए प्रेरित किया.
देवसहायम ने न केवल अपने ख्रीस्तीय विश्वास के अनुसार जीवन बिताया, बल्कि ब्राह्मण लोगों के धर्माचरण की आलोचना भी की.कई बार उन्होंने ब्राह्मणों के साथ वाद-विवाद भी किया. क्रुद्ध हो कर उन्होंने देवसहायम को एक संकरे कमरे में कैद कर किया.राजा ने उन्हें मृत्यु दण्ड सुनाया. देवसहायम ने बड़ा आनन्द महसूस किया कि ख्रीस्त के नाम पर मरने के लिए वे योग्य पाये गये.लेकिन उनके वध के पहले किसी भविष्यवक्ता ने राजा को बताया कि नीलम को मारने पर उन्हें बड़ी विपत्ति भुगतनी पडे़गी. इस पर राजा ने अपनी आज्ञा को रद्द किया. नीलम को खेद हुआ कि वे अब येसु केलिए शहीद नही बन सकेंगे.
उनका अपमान करने के लिए शहर की गलियों से उनकी परेड निकाली गयी.लेकिन वे ईश्वर की स्तुति करते रहे. एक दिन रास्ते में वे प्यासे थे और पानी न दिये जाने पर उन्होंने एक पत्थर के सामने खडे हो कर प्रार्थना करने के बाद उस पत्थर को अपनी कुहनी से मारा और वहाँ से पानी निकलने लगा. उन्हें पेरुविलाय नामक जगह ले जाया गया.वहाँ पर उन्हें एक खुली जगह पर एक नीम के पेड से जंजीरों से कस कर बाँध दिया गया. सात महीनों तक दिन-रात हर प्रकार के मौसम में वे वहाँ पडे़ रहे. उनकी देखरेख करने वाले सैनिक उनके विश्वास और अच्छे व्यवहार से प्रभावित हो गये और उन के साथ अच्छा व्यवहार करने लगे. सैनिकों ने उन्हें भाग जाने का मौका भी दिया, लेकिन देवसहायम ने एक कायर की तरह भाग जाने के बजाय येसु के लिए दुख सहना उचित माना.इन सब के बीच कई लोग उनसे मिलने, उनकी प्रार्थना की याचना करने तथा उनकी आशिष ग्रहण करने आते थे.
14 जनवरी 1752 की रात को सैनिक देवसहायम पिल्लई को एक पहाड़ी पर ले गये. मृत्यु को करीब देख कर उन्होंने प्रार्थना करने के लिए कुछ समय माँगा. प्रार्थना के बाद उनके ऊपर गोलियाँ चलायी गयी.अपने गहरे विश्वास का प्रमाण देते हुए प्रभु येसु और माता मरियम के नाम लेकर चालीस साल की उम्र में उन्होंने मृत्यु का आलिंगन किया.सैनिकों ने उनके मृतशरीर को जंगल में फेंक दिया.
जब ख्रीस्तीय विश्वासियों को देवसहायम की मृत्यु की खबर मिली, तो वे उनके मृतशरीर की खोज में निकले. पाँच दिन की खोज के बाद उन्हें सिर्फ कुछ हड्डियाँ मिली, जिन्हें उन्होंने बड़े आदर के साथ कोट्टार के संत फ्रांसिस ज़ेवियर गिरजाघर में दफ़नाया.बपतिस्मा ग्रहण करने के बाद उन्होंने सात साल ख्रीस्तीय जीवन बिताया, उनमें से तीने साल वे जंजीरों से बंधे हुए थे.जीवित रहते ही लोगों ने देवसहायम एक संत माना. उनकी शहादत के बाद न केवल उनकी कब्र पर, बल्कि उनके जीवन से संबंधित सभी जगहों पर विश्वासियों की भीड़ लगने लगी. दिसंबर 2, 2012 को कोट्टार धर्मप्रान्त के नागरकोइल में देवसहायम पिल्लई को धन्य घोषित किया गया.जून 2012 में पोप बेनेडिक्ट XVI ने आधिकारिक घोषित किया गया.
21 फरवरी 2020 को, पोप फ्रांसिस ने देवसहायम, सीएल के हस्तक्षेप के लिए एक चमत्कार को मान्यता दी कैनोनेज़ेशन (सन्थूड) के लिए अपना रास्ता तय करना. वह संत बनने के लिए भारत में पहले कैथोलिक होंगे.
आलोक कुमार
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