Tuesday 7 May 2013

सी.बी.आई. को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त करना सर्वोच्च न्यायालय के लिए भी एक चुनौती हैः डा0 जगन्नाथ


      

 सी.बी.आई. को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त करना सर्वोच्च न्यायालय के लिए भी एक चुनौती हैः डा0 जगन्नाथ

पटना। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री एवं पूर्व केन्द्रीय मंत्री डा. जगन्नाथ मिश्र का कहना है कि साल 1997 के सर्वोच्च न्यायालय के मौद्रिक घोटाला के फैसला का अनुपालन होने से यह स्पष्ट है कि सी.बी.आई. को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त करना सर्वोच्च न्यायालय के लिए भी एक चुनौती है।
  आज अपने वक्तव्य में पूर्व मुख्यमंत्री डा. जगन्नाथ मिश्र ने कहा है कि देश में भ्रष्टाचार में बढ़ोतरी पर हम सभी चिन्तित हैं। हालांकि समय-समय पर भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की कोशिशें भी होती रही हैं। इसी क्रम में 1997 के 17 दिसम्बर को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित फैसला का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि- हर्षद मेहता कांड के बाद भ्रष्टाचार नियंत्रण के लिए जो निर्देश जारी किये गये उनका कार्यान्वयन नहीं होने के कारण राष्ट्र में लगातार घोटालों और भ्रष्टाचार में बढ़ोतरी होती गयी है। अब सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि उनका (सर्वोच्च न्यायालय का) पहला प्रयास सी.बी.आई. को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त करने का है। सचमुच यह पहला अवसर नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय इस कार्य को करने पर आरूढ़ हुआ है। 17 दिसम्बर 1997 को हवाला मामला में पारित फैसला के बाद इसी प्रकार का प्रयास शुरू हुआ। इस लिये उक्त फैसला का पुनरवलोकन इस प्रसंग में महत्वपूर्ण है। हवाला मामला में लगे आरोपों का सार तत्व यह है कि गुपचुप माध्यम से दागी धनराशि का उपयोग करते हुए हवाला लेन-देन से आतंकियों को आर्थिक सहायता दी गयी थी। सी.बी.आई. समुचित अनुसंधान करने और संलिप्तों के अभियुक्त बनाने में असफल हो गयी। ऐसा प्रभावशाली और शक्तिशाली लोगों को संरक्षित करने के लिए किया गया। न्यायालय ने कन्टीर्न्यूइंग मैन्डेमस  की प्रक्रिया अपनायी जिससे समय-समय पर अंतरिम आदेश करने में न्यायालय को सुविधा हुई और एक आदेश कोयला घोटाला में पारित आदेश के समान था। न्यायालय ने सी.बी.आई. को कार्यपालिका के उच्च स्तर पर अनुसंधान की प्रगति प्रतिवेदित नहीं करने को कहा। न्यायालय के सभी निर्देशों में 4 महत्वपूर्ण हैं। (1) फैसला के अनुसार सी.बी.आई. पर अधीक्षण का दायित्व सरकार से हटा कर केन्द्रीय निगरानी आयोग को सौंपा गया। (2) फैसला के अनुसार सी.बी.आई. के निदेशक का चयन केन्द्रीय निगरानी आयोग (सी.भी.सी.) की अध्यक्षता में दो सदस्यों, केन्द्रीय गृह सचिव एवं कार्मिक सचिव, के साथ गठित समिति द्वारा किया जाना चाहिये। (3) सी.बी.आई. निदेशक का कार्यकाल अल्पतम दो वर्षों का हो- बिना वार्द्धक्य का विचार किये। (4) सी.बी.आई. को अब से संयुक्त सचिव के स्तर तक के पदाधिकारियों के विरूद्ध आरोपों की जाँच करने के लिए सरकार से आदेश लेने की आवश्यकता नहीं होगी। इन चारों में से एक भी निर्देशिका का अनुपालन ईमानदारी से नहीं किया गया। सी.बी.आई. पर नियंत्रण पूर्णतः हस्तान्तरित नहीं हुआ। सी.भी.सी. एक्ट -2003 द्वारा सी.भी.सी. को मात्र भ्रष्टाचार के मामलों के लिए अधीक्षण करने को कहा गया- सिर्फ ऐसे मामलों को जो दिल्ली स्शेसल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट पंजीकृत करे। सी.भी.सी. एक्ट से सी.बी.आई. पर दुहरे नियंत्रण की व्यवस्था का परिणाम आया- एक सी.भी.सी का नियंत्रण- भ्रष्टाचार मामलों में और दूसरा केन्द्र सरकार का नियंत्रण- दूसरे मामलों में।
            सर्वोच्च न्यायालय को केवल सी.बी.आई. को स्वतंत्र करने की अनुशंसायें करने के लिए सोचना है, अपितु अनुशंसाओं का अनुपालन कराने के लिए भी।