Friday 3 January 2014

आइडिया ऑफ इंडिया और नरेन्द्र मोदी


- ग्लैडसन डुंगडुंग
भाजपा के भीष्म पितामह लालकृष्ण आडवाणी के भारी विरोध के बावजूद फासीवाद और विकास के गांठजोड़ को पूंजीवादी लोकतंत्र के बाजार में परोसने में महारथ हासिल करनेवाले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी अब भाजपा के घोषित प्रधानमंत्री उम्मीदवार बन गए हैं और इसी के साथ भाजपा का असली चेहरा भी देश के सामने आ गया है कि हकीकत में पार्टी का लागाम आर.एस.एस. के पास ही है। वहीं राष्ट्रीय मीडिया ने देश को मोदीमय बना दिया है। प्रत्येक मीडिया चुनाव में उन्हें सबसे ज्यादा वोट मिलने की बात डंके के चोट पर कही जा रही है, जिसमें अब नया चैप्टर यह जोड़ दिया गया है कि देश का 47 प्रतिशत युवा वोटर मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहता है। ऐसी स्थिति में मोदी की हार-जीत से ज्यादा यह विश्लेषण जरूरी है कि क्या मोदी ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ का प्रतिनिधित्व करते हैं? दूसरा प्रश्न यह है कि क्या मोदी से भारतीय संविधान को खतरा है? और तिसरा सवाल यह है कि क्या मैंगो पीपुल को मोदी से डरने की जरूरत है?

इसमें सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि आइडिया ऑफ इंडिया क्या है? भारत के संविधान निर्माताओं ने संविधान के प्रस्तावना में ही आइडिया ऑफ इंडिया को खुबसूरती के साथ सजाया है, जिसमें विविधता में एकता, सर्वधर्म संभव, धार्मिक और अभिव्यक्ति की आजादी, आत्म-सम्मान के साथ जीने के लिए स्वतंत्रता और समान अधिकार, राष्ट्रीय एकता कायम करने वाली बंधुता और सभी को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय देने की गारंटी समाहित है, जो संविधान का मूल आधार भी है। लेकिन वहीं नरेन्द्र मोदी ऐसे विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं जो आइडिया ऑफ इंडिया को चकनाचुर कर देती है। वे टिका तो मुस्कुराते हुए लगाते हैं लेकिन टोपी नहीं पहनना चाहते। वे हिन्दी, हिन्दु और हिन्दुस्तान की बात करते हैं जो मूलतः संघ परिवार का विचारधारा है। यद्यपि संघ परिवार स्वयं को राष्ट्रभक्त, देश का हितैशी और भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा संरक्षक होने का दंभ भरता है लेकिन आर.एस.एस. के मुख्यालय नागपुर में तिरंगा झंडा से ज्यादा तरजीह भगवा झंडा को मिलता है। संघ परिवार ने देश के लिए अलग से संविधान भी बनाकर रखा है और सŸाा में आने पर उसे लागू करना चाहते हैं क्योंकि उन्हें मौजूदा संविधान पसंद नहीं है। असल में संघ परिवार का विचारधारा ही विदेशी है जो मूलतः हिटलर से प्रभावित है। हिटलर के राष्ट्र की परिकल्पना में एक नस्ल, एक भाषा और एक संस्कृति समाहित था और इसी विचारधारा की वजह से जर्मनी में 60 लाख लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया था। संघ परिवर के विचारधारा का परिणाम आयोध्या, गुजरात और देश के कई अन्य हिस्सों देखा जा चुका है और यही वजह है कि मोदी की हुंकार से मैंगो पीपुल्स बीच में दहशत पैदा होती दिखती है। इसलिए आइडिया ऑफ इंडिया और संघ परिवार का विचारधारा देश में एक साथ नहीं चल सकती है क्योंकि दोनो एक दूसरे के विपरीत है।

लेकिन राष्ट्रीय मीडिया मोदी को देश का मसीहा के रूप में प्रस्तुत कर रहा है। ऐसा महौल बनाया जा रहा है कि मानो मोदी के आते ही देश की सारी समस्याओं का अंत हो जायेगा। इसलिए यह भी सवाल है कि क्या मीडिया भी आइडिया ऑफ इंडिया से बेखबर है? सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया की भूमिका पर यह कहते हुए सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या मीडिया को संवैधानिक मूल्यों की समझ है? न्यायालय ने सवाल इसलिए किया है क्योंकि मीडिया भी सिर्फ और सिर्फ आर्थिक विकास और जीडीपी की ही बात करती है। इतना ही नहीं 15 अगस्त को राष्ट्रीय मीडिया ने डा. मनमोहन सिंह और नरेन्द्र मोदी दोनों के भाषणों की तुलना की और दोनों को चैनलों ने लाईव दिखाया। ऐसा लग रहा था मानो दो देशों के प्रधानमंत्री भाषण दे रहे हैं। क्या यह बरताव उचित था? डा. मनमोहन सिंह और मोदी की तुलना की जाये तो अंतर सिर्फ इतना ही दिखाई देगा कि एक चुप रहने में तो दूसरा बोलने में माहिर है, एक में होश है तो दूसरा में जोश, एक आइडिया ऑफ इंडिया के करीब है और दूसरा इससे काफी दूर है। लेकिन दोनों एक ही आर्थिक नीति का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिससे सिर्फ मुट्ठी भर लोगों को फायदा पहुंचता है।

आजकल कॉरपोरेट जगत भी मोदीमय होता दिखाई पड़ता है। लेकिन सवाल यह है कि कॉरपोरेट जगत को भारत में उदारीकरण के जनक कहे जाने वाले डा. मनमोहन सिंह से ज्यादा मोदी पर क्यों भरोसा है? असल में भाजपा बहुसंख्यक व्यापारिक वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है, जिन्हें अब यह लगने लगा है कि मोदी उनके लिए व्यापार के नये-नये रास्ता खोल सकते हैं। यह इसलिए क्योंकि पूरे देश में भूमि-अधिग्रहण को लेकर रैयत, पूंजीपति और सरकारों के बीच ताना-तानी चल रही है और प्रस्तावित नये भूमि अधिग्रहण कानून से पूंजीपतियों की समस्या और जटिल होने वाली है। मनमोहन सिंह, पी. चिदंबरम और अहलुवालिया की तीकड़ी के बावजूद  बड़े-बड़े परियोजना नहीं लग पाये हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें यह लगने लगा है कि मोदी ही उन्हें प्रकृतिक संसाधनों कब्जा दिलायेंगे क्योंकि मोदी सरदार सरोवर परियोजना के बारे में यह कह चुके हैं कि गुजरात के 4 लाख किसानों को पानी देने के लिए 10 हजार लोगों को विस्थापित करने में कोई बुराई नहीं है। यानी ग्रेटर कॉमन गूड के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं और कॉरपोरेट वर्ल्ड इसी वजह से उन्हें सŸाा में देखना चाहती है।

यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या मोदी 2014 के आम चुनाव में भाजपा को सŸाा दिला पायेंगे? यह प्रश्न इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि 90 के दशक में देश को सम्प्रदायिकता की आग में झोंकने वाले हिन्दुत्व का मसीहा लालकृष्ण आडवाणी और हिन्दु हृदयसम्राट बालासाहब ठाकरे भी सŸाा के केन्द्र तक नहीं पहुंच पाये हालांकि हिन्दुत्ववादी राजनीति को उन्होंने जरूर स्थापित कर दिया। राम मंदिर आंदोलन के समय ऐसा लग रहा था मानो सचमुच हिन्दुत्व का मसीहा आ गया हो। उस समय मैंगों पीपुल के लिए भी रोटी, कपड़ा और मकान से ज्यादा जरूरी आयोध्या में राम मंदिर की स्थापना करना था। बावजूद इसके आडवाणी प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन पाये? यह इसलिए हुआ क्योंकि आडवाणी आइडिया ऑफ इंडिया का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। और जब इस बात की समझ आडवाणी को हुई तो उन्होंने जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष घोषित कर आइडिया ऑफ इंडिया का हिस्सा बनने की कोशिश की लेकिन तबतक बहुत देर हो चुकी थी और उनका करवट बदलना हार्डकोर हिन्दुओं को पसंद नहीं आया। इसलिए अंततः संघ परिवार ने उन्हें हासिये पर डाल दिया। वहीं अटल बिहारी बाजयेपी देश के प्रधानमंत्री इसलिए बने क्योंकि वे आइडिया ऑफ इंडिया के करीब थे। 2002 के गुजरात दंगा के समय भी उन्होंने नरेन्द्र मोदी को राजधर्म का पालन करने को कहा। लेकिन उस समय आडवाणी ही थे, जिन्होंने मोदी को सहारा दिया था और उनकी कुर्सी बच पायी थी।

इसमें दो राय नहीं है कि मोदी जमीनी नेता हैं, उनमें भीड़ को अपने तरफ खींचने की ताकत है और युवाओं को उनमें सामाधान भी दिखाई देता है। इसीलिए उच्च जातियों का संगठन आर.एस.एस. ने पिछड़े वर्ग से आनेवाले मोदी का नेतृत्व स्वीकार किया। हकीकत यह है कि मोदी आइडिया ऑफ इंडिया का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं और वे संघ परिवार के विचारधारा को ही आगे बढ़ायेंगे। इसलिए मोदी की जीत इस बात पर निर्भर करेगा कि कितने वोटर आइडिया ऑफ इंडिया और संघ परिवार के विचारधारा को समझते हैं। अगर वोटर आइडिया ऑफ इंडिया को समझते हैं तो मोदी की हार निश्चित है। लेकिन वहीं मोदी जीत जाते हैं तो स्पष्ट हो जायेगा कि आजादी के 66 वर्ष बाद आइडिया ऑफ इंडिया ने दम तोड़ दिया है। मोदी की जीत का अर्थ संविधान की हार होगी और इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार देश में सबसे ज्यादा समय तक शासन करने वाली कांग्रेस पार्टी होगी, जिसने आइडिया ऑफ इंडिया को जन-जन तक नहीं पहुंचाया। आज भी देश का बहुसंख्यक आबादी संविधान से अनजान है या इसे नाकारात्मक दृष्टि से देखता है।

इस हकीकत को नाकारा नहीं जा सकता है कि 90 के दशक की उदारीकरण नीति ने आइडिया ऑफ इंडिया को हासिये पर डाल दिया और विकास के नाम पर मुट्ठीभर लोगों के हाथों देश के संसाधनों को केन्द्रित कर दिया है। यही वजह है कि आज देश का 70 प्रतिशत संपति सिर्फ 8200 लोगों के पास है और बहुसंख्यक लोग संसाधनहीन हो गए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने गोवा में लौह-अयस्क उत्खनन के मामले में स्पष्ट कर दिया है कि घरेलू सकल उत्पाद (जीडीपी) और आर्थिक विकास ही सबकुछ नहीं है तथा निजीकरण संवैधानिक मूल्य के खिलाफ है। इसलिए देश के प्रत्येक व्यक्ति का सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय के साथ समृद्धि होनी चाहिए। इंसाफ के साथ समावेशी विकास ही असली विकास है और इसी में आइडिया ऑफ इंडिया झलकती है लेकिन मनमोहन, मीडिया और मोदी ये तीनों इसके खिलाफ खड़े दिखाई देते हैं। ऐसे स्थिति में देश को नये नेतृत्व की जरूरत है जो आइडिया ऑफ इंडिया को समझता हो और इसकी रक्षा करने की ताकत रखता हो। वरना मोदी जिस परिवार से आते हैं उसे देश को तोड़ने के लिए ही बनाया गया है जोड़ने के लिए नहीं।

 ग्लैडसन डुंगडुग मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं।