Monday 9 June 2014

पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी


                                                                                                          -बरखा लकड़ा-
पड़हा राजा मुक्ता होरो के अनुसार कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों का तर्क है कि पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था में महिलाओं के लिए कोई पद की व्यवस्था नहीं की गयी लेकिन इस तर्क को बृहत दृष्टिकोण से समझना जरूरी है। पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था ठीक उसी तरह की व्यवस्था है जैसे लोकतंत्रिक व्यवस्था में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्री जैसे पदों पर महिलाओं के चुने जाने से उन्हें भी उसी पद के नाम से सम्बोधित किया जाता है। किसी महिला के राष्ट्रपति बनने पर उसे राष्ट्रपत्नी तो नहीं कहा जाता है ऐसी स्थिति में पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था को दूसरी नजरिये से क्यो देखा जाना चाहिए? एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि अगर इस व्यवस्था में मौलिक स्तर पर परिवर्तन हो रहा है तो यह चर्चा का विषय क्यों नहीं बनता है?
यह तथ्य है कि समय के साथ-साथ इस व्यवस्था में त्वरित गति से परिवर्तन हो रहा है। लेकिन बाहरी दुनियां इस परिवर्तन से इसलिए वाकिफ नहीं है क्योंकि आदिवासियों की व्यवस्था और उसमें भी खासकर महिलाओं की भागीदारी (ग्लैमर की दुनियां को छोड़कर) मीडिया का एजेण्डा नहीं है। देश में आज भी महिलाओं के साथ दूसरे दर्जे के नागरिक के रूप में ही व्यवहार किया जाता हैं। बात अगर आदिवासी महिलाओं (यौवन मामला को छोड़कर) की हो तो दिल्ली और भी दूर है। आज मीडिया को भी महिलाओं (फैशन एवं फिल्मी दुनियां को छोड़कर) के बारे में सोचने की जरूरत है एवं उन्हें सशक्त बनाने हेतु एक बड़ी भूमिका निभाने की आवश्यकता है जो फिलहाल दिखाई नहीं पड़ता है।
देश में महिलाओं की आधी आबादी होने के बावजूद उन्हें सिर्फ 33 प्रतिशत आरक्षण प्राप्त करने हेतु एड़ी-चोटी एक करनी पड़ रही है। आज महिलाओं को विधानमंडल एवं संसद में आरक्षण नहीं मिल पाने की मुख्य वजह पुरूष विधायक एवं सांसद ही हैं, चाहे वे क्यों आरक्षण में आरक्षण का बहाना करें या पार्टी के आरक्षण नीति का तर्क दे, महिलाओं को सत्ता से दूर रखना ही उनका मुख्य एजेण्डा है। ऐसे समय में अगर पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था में आदिवासी महिलाओं को ग्राम प्रधान से लेकर पड़हा-राजा जैसे सर्वोच्च पद पर सर्वसम्मति से नियुक्त किया जा रहा है तो यह निश्चय ही एक अनोखा पहल है। महिलाओं की भागीदारी को लेकर हमेशा से विवाद में रहनेवाला पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था में जिस गति से महिलाओं की सहभागिता का स्वागत किया जा रहा है उसे देखकर तो यही लगता है कि अगर इस व्यवस्था से जुड़े पुरूष समाज अगर रूढ़िवादिता का तार को और थोड़ा ढ़ीला कर दें तो यह व्यवस्था महिला भागीदारी के संदर्भ में देश ही नहीं लेकिन दुनियां के लिए एक रोल मोडल एवं प्रेरणा स्त्रोत बन सकता है।
मुन्नी हंसदा जो संथाल परगना की नेता है, इनके अनुसार  पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था आदिवासी समुदाय की एक ऐसी व्यवस्था है जो सदियों से उनके सामाजिक, धार्मिक, संस्कृतिक और कुछ हद तक आर्थिक मसलों का निराकरण करती रही हैं। यूं तो यह व्यवस्था अन्य सामुदायों की व्यवस्थाओं से बिल्कुल भिन्न है और सामुहिकता, सर्वसम्मति, कम खर्च में जल्द न्याय इत्यादि के लिए जानी जाती है। दूसरी ओर आदिवासी समाज समानता पर आधारित होने की वजह से आदिवासी महिलाओं की स्थिति समाज में अन्य महिलाओं से बेहतर मानी जाती है। लेकिन पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था में आदिवासी महिलाओं की भागीदारी के प्रश्न पर तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग एवं समाज की मुख्यधारा से जुड़े लोगों की उंगलियां उठती रही हैं।
फलस्वरूप महिलाओं की भागीदारी के सवाल पर पंचायत राज व्यवस्था के पक्ष में ही तालियों की गड़गड़ाहट सुनाई पड़ती है पंचायत व्यवस्था को ही महिलाओं के भागीदारी सुनिश्चित करने का सही विकल्प मान लिया गया है। तो क्या यह मान लिया जाये कि पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था में महिलाओं की भूमिका नगण्य है?यह जरूर कहा जाता है कि झारखण्ड में पंचायत चुनाव होने से सत्ता में महिलाओं की भागीदारी बढ़ गई है लेकिन हकीकत यह है कि चुने हुए प्रतिनिधि स्वयं अपने हक के लिए लगातार सड़कों पर उतर रहे हैं। इसका मतलब क्या है? एक बात यह जरूर हुआ है कि महिलाएं अपना हक और अधिकार लेने के लिए घर से बाहर तक आवाज उठा रही हैं।
मुन्नी के अनुसारपारंपरिक स्वशासन व्यवस्थामें महिलाओं की समान भागीदारी को महत्वपूर्ण मानते हैं। उनका कहना है कि महिलाएं अपना दायित्व को बाखूबी से निभाती हैं साथ ही आदिवासी समाज समानता पर आधारित है इसलिए महिलाओं को हर जगह समान अधिकार एवं भागीदारी मिलना ही चाहिए। यह भी तथ्य है कि कुछ गांवों में महिलाओं की भूमिका को आज भी नकारात्मक दृष्टिकोण से देखा जाता है, जिसमें बदलाव लाने की आवश्यकता है। ठीक ही कहा गया हैं। कि महिला समाज की रीढ़ होती हैं। वह परिवार का निर्माणकारी तथा समाज की आधार होती हैं। आदिवासी महिला हो यह गैर आदिवासी महिला, दोनों ही देश तथा राष्ट्र का निमार्ण करती हैं। आज आदिवासी महिलाएं समाज के हर क्षेत्र में लगातार सशक्त होती जा रही है बस इतना जरूरी है कि उन्हें लगातार अवसर उपलब्ध कराया जाए।
बरखा लकड़ा
सामाजिक कार्यनेत्री है। स्वतंत्र पत्रकार भी हैं।

No comments: