बिहार
राज्य आवास बोर्ड की कहानी
दीघा के किसान 1024.52 एकड़
पर
जमीन
खेती
किया
करते
थे।
उस
जमीन
पर
महादलित
और
अन्य
समुदाय
के
लोग
मजदूरी
करते
थे।
किसान
की
जमीन
और
मजदूरों
की
मेहनत
से
फसल
लहरा
उठती
थी।
इस
क्षेत्र
के
बगीचे
के
मालहद
आम
और
खेत
के
भुट्टा
महसूर
था।
किसान
आलू
और
प्याज
भी
ऊपजाते
थे।
ऐसा
करने
से
सरकार
असहज
महसूस
करने
लगी।
एक
ही
झटके
में
बिहार
राज्य
आवास
बोर्ड
के
माध्यम
से
कृषि
योग्य
जमीन
का
अधिग्रहण
करने
का
ऐलान
कर
दी
गयी।
तब
बिहार
राज्य
आवास
बोर्ड
ने
1974 में
1024.52 एकड़
जमीन
का
अधिग्रहण
कर
लिया।
अधिग्रहण
तो
कर
लिया।
40 साल
के
बाद
भी
किसानों
को
जमीन
की
कीमत
अदा
नहीं
की।
मगर
आज
भी
सरकार
दावा
करती
है
कि
यह
जमीन
सरकार
की
है।
पेश
है
आलोक
कुमार
की
खास
रिपोर्ट।
सन् 74 की
बात
है।
सूबे
में
कांग्रेस
की
सरकार
है।
कांग्रेस
के
खिलाफ
छात्र
नेता
आंदोलन
काट
रहे
हैं।
छात्र
आंदोलन
18 मार्च
को
उग्र
रूप
धारण
कर
लिया।
खादी
भंडार
को
आग
के
हवाले
कर
दी
गयी।
देखते
ही
देखते
धू-धू करके खादी भंडार राख में तब्दील हो गयी। इस आंदोलन को सही मुकाम तक पहुंचाने का बीड़ा आखिरकार सर्वोदय नेता जयप्रकाश नारायण जी के कंधे पर आ गया। ऐतिहासिक गांधी मैदान में 5 जून
को
विशाल
जनसभा
की
गयी।
इस
महती
जनसभा
में
लोकनायक
जयप्रकाश
नारायण
ने
छात्रों
को
स्कूल
और
कॉलेज
का
वहिष्कार
करके
जेल
भरो
अभियान
का
उद्धद्योषणा
कर
दिए।
भ्रष्ट
कांग्रेसी
सरकार
को
गद्दी
से
उखारकर
फेंकने
की
तैयारी
हो
गयी।
जेल
भरो
अभियान
को
सफल
बनाने
के
उद्देश्य
से
छात्र
नेता
सक्रिय
हो
गए।
पटना
विश्वविद्यालय
के
अध्यक्ष
लालू
प्रसाद
यादव
ने
मौका
ताड़कर
दीघा
आ पहुंचे। दीघा में आम सभा किए। यहां के छात्र और नौजवानों को लालू प्रसाद यादव ने ललकारा और कहा कि अगर बिहार राज्य आवास बोर्ड के द्वारा अधिग्रहित जमीन को मुक्त करवाना चाहते हो,तब जेल भरो अभियान को सफल बनाएं। यहां से दर्जनों की संख्या में छात्र और नौजवानों ने स्कूली पढ़ाई को छोड़कर जेल चले गए। दुःखद पहलु यह है कि अधिग्रहण से जमीन मुक्त नहीं हुई और ने जेपी सेनानी पेशन से ही लाभान्वित हो सके। आज भी जमीन और पेंशन के सिलसिले में सरकार के पास पक्ष रखते ही रहे हैं। इन लोगों को 40 सालों
में
सिवा
दुत्कार
के
कुछ
नहीं
मिला।
बिहार राज्य आवास बोर्ड ने 1974 में
राजीव
नगर,केशरी नगर,जयप्रकाश नगर,नेपाली नगर,चन्द्रविहार कॉलोनी की जमीन को अधिग्रहण किया। अधिग्रहित जमीन के 1000 से
अधिक
जमीन
मालिक
किसानों
को
मुआवजा
नहीं
मिला।
केन्द्र
और
बिहार
में
सत्ता
परिवर्तन
के
बाद
भी
राजनीतिज्ञों
के
द्वारा
दीघा
के
किसानों
को
फायदा
नहीं
मिला।
राजनीतिक
दल
हितसाधक
बनकर
रहे
गए।
हितसाधकों
के
द्वारा
चुनाव
आने
के
पहले
अधिग्रहण
करने
का
मामला
उछालकर
वोट
हासिल
करके
कुंडली
मारकर
बैठ
जाते
हैं।
जो
आजतक
होते
आ रहा है।
इनके रवैया से नाखुश होकर दीघा के किसानों ने 1982 में
पटना
उच्च
न्यायालय
में
मामला
दर्ज
किया।
चन्दा
से
जमीन
की
जंग
लड़ने
वाले
अर्थ
और
पैरवी
में
पीछे
रहे
गए।
नतीजन
दीघा
के
किसानों
को
पटना
उच्च
न्यायालय
से
मुंह
की
खानी
पड़ी।
मगर
दीघा
के
किसानों
ने
पटना
उच्च
न्यायालय
से
पराजित
होने
के
बाद
भी
हार
नहीं
माने।
इसके
खिलाफ
1983 में
किसान
सर्वोच्च
न्यायालय
गए।
वहां
भी
किसान
पराजित
हो
गए।
मगर
माननीय
सर्वोच्च
न्यायालय
ने
आवास
बोर्ड
को
निर्देश
दिया
कि
आपने
जमीन
की
कीमत
22 सौ
रू.
कट्टे
निर्धारित
किए
हैं।
चूंकि
2 साल
विलम्ब
हो
चुका
है।
उसके
आलोक
में
किसानों
को
अतिरिक्त
साढ़े
सात
प्रतिशत
मुआवजा
देकर
राशि
भुगतान
करें।
इसके
अलावे
4.9 एकड़
जमीन
को
आर.एस.पाण्डेय और अन्य के लिए छोड़ दी गयी है। उसका पुनः अधिग्रहण किया जाए। मगर ऐसा नहीं किया गया।
उग्र आंदोलन के कारण 30 दिसम्बर
1994 को
गोली
चालन
में
लाली
कुमार
नामक
नौजवान
की
मौत
हो
गयी।
मौत
के
20 साल
के
बाद
आंदोलन
में
मारे
गए
लाली
कुमार
याद
आए।
धुड-दौड़ रोड चौहारा का नाम बदलकर शहीद लाली चौक रखा गया।
आलोक कुमार
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