संकल्पना
पत्र
अहिंसा
और शांति
पर अन्तर्राष्ट्रीय
महिला सम्मेलन
!जिल
कैर-हैरिस
व आशा
रमेश
अगर
अहिंसा हमारे
अस्तित्व का
कानून है,
तो भविष्य
महिलाओं के
साथ है...महिलाओं से
ज्यादा दिल
की बात
कौन ज्यादा
बेहतर छू/समझ सकता
है?’’
(गांधी
इन यंग
इंडिया, 10-4-1930, पे. 121)
गांधीवादी
अहिंसा लगातार
नए-नए
रूप लेती
जा रही
है और
हिंसा की
राजनीति के
लिए नए-नए वैकल्पिक
तरीके सुझाती
रहती है।
भारत और
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अहिंसा
में महारत
रखने वालों
को एकजुट
होना चाहिए-
दुनिया के
मौजूदा हालातों
पर विरोध
जाहिर करने
और एकजुट
होने तथा
हर स्तर
पर शांति
स्थापना के
लिए। संघर्ष
सीधे तौर
पर होने
वाली हिंसा
जैसे गृह
युद्ध और
ऊपरी-स्तर
पर होने
वाली प्राकृतिक
आपदा के
रूप में
देखा जा
सकता है
अथवा इसे
दमन और
गरीबी से
जन्म लेने
वाले अप्रत्यक्ष
हिंसा रूपों
में भी
देखा जा
सकता है,
जैसे स्थानीय
तौर पर
पहले से
ही कमजोर
स्थिति में
जी रहे
लोगों को
और ज्यादा
हाशियाबद्ध किया जाना। गांधी अपने
एक कथन
में बताते
हैं कि
हिंसा को
बदलने के
लिए क्या
किया जा
सकता है-‘‘अहिंसा जनता
के निःस्वार्थ
सेवा कार्र्याें
के माध्यम
से प्रकट
होनी ही
चाहिए।’’(गांधी,
अंक 8, पे.
81) यही सोच
सामान्य तौर
पर हमारी
मानवता को
लगातार दिशा
प्रदान करती
है।
महिलाएं,
समाज के
विभिन्न वर्गों
में से
एक ऐसा
वर्ग हैं
जो इस
दिशा में
महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है,
लेकिन जो
बड़े पैमाने
पर अदृश्य
रहा है।
हालांकि उन्होंने
आज़ादी की
लड़ाई के
साथ-साथ
कई संघर्षों
में पुरुषों
के कंधे
से कंधा
मिलाकर संघर्ष
किया है,
लेकिन उनके
महत्व को
पहचाना नहीं
गया और
वे अदृश्य
बनी रही
हैं। हिंसा
का सामना
करने वाली
कई महिलाएं
अच्छी तरह
जानती है
कि कैसे
‘‘संघर्ष को
रोका जा
सकता है’’
और उन्होंने
हिंसा से
निपटने की
ऐसी रणनीतियां
और जानकारियां
विकसित किया
है, जिनके
बिना यह
अनियंत्रित हो सकती है। कुछ
महिलाओं ने
संघर्ष को
विनाशकारी ताकतों में बदलने से
रोकने वाले
नेतृत्व के
उदाहरण पेश
किए हैं।
असंख्य महिलाओं
के आंदोलनों
ने ऐसे
रास्ते खोज
निकाले हैं
जो हिंसा
को एक
रचनात्मक उद्देश्य
और सकारात्मक
राजनैतिक बदलाव
की दिशा
देते हैं।
चुनौती यह
है कि
महिलाओं ने
अपनी ज़िंदगी
में रोजाना
पेश आने
वाली बेतहाशा
समस्याओं को
सामने लाने
के लिए
के लिए
ये जो
प्रयास/काम
किए हैं,
उन्हें लिखित
रूप में
दर्ज करना
हम भूल
गए। यही
बात है,
जिसे सामने
लाने और
सराहे जाने
की ज़रूरत
है।
संयुक्त
राष्ट्र के
16वें सतत्
विकास लक्ष्यों
(2015 में निर्मित एस.डी.जीएस)
में इस
बात पर
ज़ोर दिया
गया है
कि ‘‘सतत्
विकास के
लिए शांतिपूर्ण
और समेकित
समाज, सभी
की न्याय
तक पहुंच
कायम करें
और हर
स्तर पर
प्रभावशाली, उत्तरदायी तथा समेकित संस्थानों
का निर्माण
करें।’’ यू.एन. विमेन,
जो महिलाओं
के मुद्दांे
पर काम
करने वाली
संयुक्त राष्ट्र
की एक
शाखा है,
अद्भुत शांति
दूतों के
रूप में
महिलाओं को
एकजुट होने
का आह्वान
करती है।
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर, संयुक्त राष्ट्र
ने शांति
स्थापना में
महिलाओं के
योगदान के
महत्व को
मान्यता दी
है। इसलिए,
इसे राष्ट्रीय
विकास की
प्रक्रियाओं में एक मूल बिंदु
के रूप
में स्पष्ट
रूप से
अंकित किया
जाना चाहिए।
अहिंसा
और शांति
प्रयास एक
ऐतिहासिक ज़रूरत
की तरह
दिखाई देते
हैं। आज
हम एक
ऐसे दौर
में हैं,
जब दुनिया
में भारी
तादाद में
राजनैतिक और
सामाजिक हिंसा
तथा नागरिक
अस्थिरता ने
कब्जा कर
लिया है।
आज एक
ओर कॉन्गो
और सुडान
जैसे मुल्कों
में संघर्ष
और युद्ध
के हालात
हैं और
दूसरी ओर
सीरिया, लीबिया
व चेचेन्या
जैसे मुल्क
युद्ध के
मारे हुए
हैं। दक्षिण
एशिया के
देश धार्मिक
और जातीय
दंगों व
कई इलाकों
में खूनखराबे
के कारण
अनेक संघर्षों
का सामना
कर रहे
हैं। पूरा
मध्य पूर्व
हिंसा का
केंद्र बना
हुआ है;
ऐसा लगता
है कि
आतंक के
खिलाफ़ पिछले
दस सालों
से चल
रहा युद्ध
और अगले
दशक तक
ऐसे ही
चलता रहेगा।
हमने पिछले
कई सालों
में इतनी
भारी तादाद
में शरणार्थियों
की कतारों
को अनिश्चित
भविष्य की
ओर कदम
बढ़ाते नहीं
देखा था।
बहुतों को
यह हिंसा
की राजनति
लगती है
जो अब
काबू से
बाहर होती
जा रही
है, जिससे
बाहर जाने
का कोई
रास्ता नहीं
है; एक
ऐसा युग
को कायम
किया जा
रहा है
जहां सिर्फ़
एक ही
सच नज़र
आता है
कि दुनिया
के हर
कोने में
तीव्र संघर्ष
से नागरिक
प्रभावित हैं।
एक
चमकता सच
यह भी
है कि
महिलाओं ने
संघर्ष के
समय में,
एक शांति
स्थापकों और
वार्ताकारों के रूप में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई
है; वे
विभिन्न स्तरों
पर अपने
विचार रखने
के लिए
अहिंसक प्रयास
करती रही
हैं इनमें
म्यांमार की
ऑन्ग सन
सु, लाइबेरिया
की एलेन
जॉन्सन, ईरान
से शिरिन
इबादी, यमन
से तवाकुल
सलाम, नॉर्वे
से ग्रो
हरलेम ब्रंटलैंड
ऐसी ही
कुछ जानी-मानी महिला
नेता हैं।
लेकिन पूरी
दुनिया में
ऐसी ही
और भी
असंख्य व
अदृश्य महिलाएं
हैं जो
रोजाना शांति
प्रयासों में
लगी हुई
हैं। ‘‘मिलियन
विमेन राइज़िंग’’
(एम.डब्ल्यु.आर.) नामक
अन्तर्राष्ट्रीय शंाति अभियान इसी सच
को सामने
रखता है।
यह अभियान
महिलाओं के
खिलाफ़ हिंसा
को कम
करने के
लिए ही
शुरू किया
गया है।
दूसरी
ओर, हम
अमीरों व
ताक़तवरों को
लाभ पहुंचाने
के लिए
और वैश्विक
बाज़ार खोलते
जा रहे
हैं, और
इससे अमीर-गरीब के
बीच की
खाई और
बढ़ती जा
रही है।
इस वजह
से भी
संघर्ष का
जन्म होता
है, जिसके
परिणामस्वरूप ‘‘पिरामिड के सबसे निचले
स्तर’’ पर
और ज़्यादा
गरीबी फैलती
है, जो
दुनिया की
आबादी के
एक बड़े
हिस्से से
बना है,
लेकिन इनमें
भी सबसे
गरीब महिलाएं
हैं। बेहद
आय-असमानता
की स्थितियों
का सबसे
बुरा असर
महिलाओं और
बच्चों पर
ही पड़ता
है। खासतौर
से
समुदायों और स्थानीय स्तरों पर
यह देखा
जाता है
कि जहां
महिलाओं को
हर तरह
के मानवाधिकार
उल्लंघनों का सामना करना पड़ता
है, क्योंकि
वे आसान
शिकार होती
हैं, और
ताकतवर लोग
यह रणनीति
कमज़ोर व
गरीब लोगों
को दबाने
के लिए
इस्तेमाल करते
हैं। महिलाएं
केवल शारीरिक
उत्पीड़न और
क्रूरता ही
नहीं, बल्कि
आर्थिक अभाव का भी सामना
करती हैं
और इस
तरह से
महिलाओं में
गरीबी लगातार
बढ़ी है
या कहें
कि गरीबी
के स्त्रीकरण
में लगातार
बढ़ोतरी हुई
है।
सेल्फ़-इम्प्लॉयड विमेन्स
असोसिएशन (सेवा) की संस्थापक व
भारत में
गांधीवादी परंपरा में काम करने
वाली महान
महिला नेताओं
में से
एक इला
भट्ट ने
गरीब भूमिहीन
महिला मज़दूरों
की मोलभाव
की ताक़त
के बारे
में कहा
है-
‘‘तब
मैं सोच
रही थी
कि उनके
पास मोलभाव
करने की
ताकत नहीं
है। उनके
पास अपनी
मांगें रखने
की भला
क्या ताक़त?
हिंसा का
तो सवाल
ही नहीं
उठता। उन्होंने
तो इस
बारे में
सोचा भी
नहीं होगा।
तो ऐसे
तो आप
अपनी लड़ाई
नहीं जीत
सकते।’’ (साक्षात्कार,
31 मई, 2016)
हमारी
धरती के
संसाधनों का
विनाश एक
और ऐसा
क्षेत्र है
जिसका बड़े
पैमाने पर
अहिंसा के
साथ सामना
किए जाने
की ज़रूरत
है। पर्यावरण
में बदलाव
पर नियंत्रण
तब तक
संभव नहीं
है जब
तक पृथ्वी
के प्रति
लोगों के
अपने रवैये
मंे बदलाव
नहीं आता।
गांधी का
कथन याद
आता है,
‘‘यह भूल
जाने के
लिए कि
ज़मीन को
कैसे खोदा
जाता है
और मिट्टी
की देखभाल
के लिए
खुद को
भूल जाना।’’
संसाधनों के
बेलगाम खनन,
असीमित उपभोग,
धीमा आर्थिक
विकास हमारे
गृह के
साथ हिंसा
है। जानी-मानी पर्याविद
और विचारक
वंदना शिवा,
(2015) अपने एक नवीन प्रकाशन
टेरा विवा (ज्मततं टपअं) में
पाठकों को
सही याद
दिलाती हैं
कि किस
तरह से
संसाधनों के
खनन को
लेकर होने
वाले संघर्ष
नस्लीय और
धार्मिक संघर्षों
तक सीमित
हो गए
हैं जो
कि पर्यावरण
के असली
संकट से
लोगों का
ध्यान हटाने
का एक
तरीका मात्र
है।
संसाधनों
के असतत्
और अन्यायपूर्ण
उपयोग से
उपजे संघर्षों
को पर्यावरणीय
संदर्भ में
नहीं देखा
गया है
और उन्हें
नस्लीय व
धार्मिक संधर्षों
तक सीमित
कर दिया
गया है।
हर समस्या
और उत्पन्न
संकट के
लिए, बड़े
पैमाने पर
खनन, शांतिवादी,
और अंधे
तर्क बर्दाश्त
करने के
लिए सामने
रख दिए
जाते हैं।
सामाजिक
उथल-पुथल,
वैश्विक बाज़ार
का खुलना
और गृहीय
संकट आपस
में जुड़े
हुए सत्य
हैं जो
हमें शासन,
अर्थव्यवस्था, समाज, पर्यावरण और शिक्षा
के क्षेत्र
मंे अहिंसा
पर ध्यान
देने के
लिए विवश
करते हैं।
आज विश्व
व्यवस्था की
जटिलता लोगों
को यह
महसूस करने
पर विवश
कर देती
है कि
वे वास्तविक
राजनीति के
वैश्विक संरचनाओं,
बाज़ार, जनसंचार
माध्यमों और
औपचारिक शिक्षा
के सहकारीकरण
द्वारा ‘‘अधोगामी’’
(टॉप-डाउन)
गतिरोध में
फंसे हुए
हैं। यह
हमें भारत
में ब्रिटिश
औपनिवेशिक युग की याद दिलाता
है, जब
शासकों के
काम का
तरीका (उवकने
वचमतंदकप) महिलाओं-पुरुषों के मन
पर नियंत्रण
पाना था।
भारत की
आज़ादी की
लड़ाई में,
गांधी ने
इसके विरोध
किया और
भारतीय आबादी
को ब्रिटिश
नियंत्रण से
विमुख करके
अनयायपूर्ण शासकों के खिलाफ़ असहयोग
के माध्यम
से लोगों
को अपनी
स्वायत्तता का बोध कराया।
बेशक
आज़ादी के
बाद भारत
सरकार ने
गांधी के
वचनों का
पालन करते
हुए नए
उत्तर-औपनिवेशिक
समाज का
निर्माण नहीं
किया; बल्कि
उसने अहिंसा
को एक
राजनैतिक आज़ादी
हासिल करने
के एक
तरीके की
तरह इस्तेमाल
किया। फिर
भी एक
अहिंसावादी समाज की गांधी की
कल्पना का
अंत नहीं
हुआ। पिछले
सात दशकों
में, लाखों
सर्वाेदय कार्यकर्ताओं,
गैरसरकारी संगठनों और स्वतंत्रता सेनानियों
ने देश
के कोने-कोने में
हिंसा के
संदेश को
पहुंचाया है।
उन्होंने हर
स्तर पर
हज़ारों प्रयोग
किए हैं,
और समुदायों
में काम
किया है
जिसने महिलाओं
और पुरुषों
को अहिंसक
कार्रवाईयों का उपयोग करते हुए
संगठित होने
और समाज
को बदलने
के लिए
प्रेरित किया
है। इन
प्रयासों पर
काम करते
हुए, यह
ज़रूरी है
कि अहिंसक
महिला कार्यकर्ताओं
को व्यापक
रूप से
सामने लाया
जाए, जो
छूट गया
है। गांधीवादी
परंपरा से
जन्म लेने
वाले प्रयासों
में से
एक है
एकता परिषद
का आंदोलन
जो भूमिहीनों
के मुद्दों
पर आवाज़
उठाता है।
विभिन्न
प्रकार की
ज़मीनी स्तर
पर प्रेरित
अहिंसक कार्रवाईयांः
एकता परिषद
से एक
मामला
भारत
में समकालीन
सामाजिक आंदोलनों
मंे से
एक, एकता
परिषद 1990 से अहिंसा के माध्यम
से गरीब
भूमिहीन ग्रामीण
समुदायों के
लिए भूमि
के पुनः
वितरण और
वन अधिकारों
पर आवाज़
उठाने का
काम कर
रही है।
इसके द्वारा
समय-समय
पर विभिन्न
प्रकार के
अहिंसक कार्रवाईयां
की गई
हैं। इन
सभी का
एक ही
उद्देश्य है
‘‘नीचे से
ऊपर तक’’
सभी का
विकास। इन
प्रयासों में
शामिल हैंः
ऽ अहिंसक
संघर्ष का
प्रणः संघर्षरत्
समुदायों खासतौर
से स्वदेशी
और गैर
स्वदेशी समुदायों
तथा संसाधनों
तक उनकी
पहुंच व
उपयोग से
जुड़े मामलों
में मतभेदों
को सुलझाना।
ऽ महिलाओं
की बदलावकारी
अहिंसाः महिलाओं
ने विभिन्न
हस्तक्षेपों और ऐसे ही संगठनात्मक
प्रयासों के
माध्यम से
समुदायों के
जीवन को
बदला है,
यह सीखते
हुए कि
जेंडर हायरारकी
और संपन्न
समूहों द्वारा
उत्पन्न संघर्षों
(प्रतिरोध) से कैसे निपटा जा
सकता है।
ऽ अहिंसा
के रूप
में महिलाओं
का ग्रामीण-आर्थिक सशक्तिरणः
यह महिलाओं
(समुदाय) को
और स्वायत्तता
प्रदान करती
है ताकि
महिलाओं के
पास निर्णय
लेने की
और ज़्यादा
आज़ादी हो,
जिससे उन्हें
और ज़्यादा
सम्मान और
सुरक्षा मिल
सके जिसके
साथ स्थानीय
संपत्तियांे के निर्माण हेतु आम
संसाधनों पर
उनका और
ज़्यादा नियंत्रण
हो और
उन्हें बेहतर
ढंग से
ऋण प्राप्त
हो सकें।
ऽ ज़मीनी
सामाजिक आंदोलनों
को गठनः
सामाजिक और
आर्थिक नीति
अथवा कानूनी
बदलावों के
क्षेत्र में
राज्य के
साथ संवाद
के लिए
जन आंदोलनों
को विकसित
करना
ऽ युवा
नेतृत्व विकास
में अहिंसा
एक घटक
के रूप
मेंः युवाओं
को यह
समझने में
सहयोग करना
कि आंतरिक
और सामाजिक
दोनों रूप
में हिंसा
और अहिंसा
क्या है
तथा यह
सीखना कि
खासतौर से
भेदभाव और
गरीबों को
हाशियाबद्ध किए जाने जैसे जटिल
संघर्षों से
कैसे निपटा
जा सकता
है।
भारत
और बाहरी
दुनिया में
ऐसे ही
कई और
भी उदाहरण
हैं जहां
अहिंसक रणनीतियों
और तरीकों
का नियमित
रूप से
उपयोग किया
गया है।
इनमें से
कुछ अन्तर्राष्ट्रीय
महिला सम्मिलन
में लाए
जाएंगे।
शांति
स्थापना और
महिला समूहों
की भागीदारी
वाली अहिंसक
कार्रवाइयांे के अन्य प्रकार कुछ
अन्य प्रकार
की उल्लेखनीय
शांति स्थापना
और अहिंसक
कार्रवाईयों को हम इस प्रकार
देख सकते
हैंः
महिला
शांति सेना
(विमेन्स पीस
फ़ोर्स) उड़ीसाः
पीस ब्रिगेड
इंटरनेशनल और एन.वी. पीस
फ़ोर्स से
प्रेरित, ये
महिलाओं के
प्रशिक्षित दल हैं जो संघर्ष
के हालातों,
खासतौर से
जेंडर-आधारित
संघर्षों में
हस्तक्षेप करते हैं।
ऽ श्रम
लॉज (स्वेट
लॉज)रू
शुद्धिकरण व स्वास्थ्य लाभ कार्यक्रम/समारोहरू मुख्य
रूप से
अमरीकी स्वदेशी
समुदायों में
देखे जाते
थे और
परिवार व
समुदाय के
रिश्तों में
बदलाव लाने
के लिए
इन्हें महिला
नेताओं द्वारा
पुनर्जीवित किया जा रहा है।
ऽ बौद्धिक
प्रशिक्षण और योगः शैक्षिक स्थलों
में बौद्धिकता
और मेडिटेशन
को लाना।
ऽ अन्तः
धार्मिक संवादः
सामान्य समझदारी
कायम करने
के लिए
विभिन्न धर्मों
पर काम
करना।
ऽ शांति
क्षेत्र स्थापित
करनाः संघर्ष
क्षेत्रों में ऐसी जगह तैयार
करना जहां
लोग मिलजुल
कर शांति
से रह
सकें।
ऽ अहिंसक
संवाद के
माध्यम से
राज्य को
उत्तरदायी बनाना
ऽ अहिंसक
नागरिक अवज्ञा
आंदोलन
ऽ सामाजिक/एकता/स्थानीय/अहिंसक आर्थिक
कार्यरू विकासशील
अर्थव्यवस्थाएं जो लोगों के नज़दीक
होती हैं
और इसीलिए
न्यायसंगत होती हैं।
ऽ अन्तः
सांस्कृतिक आदान-प्रदान तथा मौखिक
इतिहासः अलग-अलग संस्कृतियों
के
बीच आपसी समझदारी को बढ़ाना,
खासतौर उनमें
जो लगातार
संघर्षमय हालातों
में बेजान
हो चुकी
हैं।
ऽ शांति
शिक्षण/स्कूलों/कॉलेज में
अध्ययनरू शोध,
प्रशिक्षण और आजीवन शिक्षण में
अहिंसा के
नकारात्मक और सकारात्मक शांति को
शामिल करना
सीखना।
ऽ संप्रेषण
के अहिंसक
तरीकेरू इसका
अर्थ है
संवेदनशील तरीके से बात करना।
ऽ जेल
प्रणालियों में कैद साथियों तथा
हिंसा करने
वालों के
साथ काम
करना।
ऽ जेंडर
समानता के
बारे में
पुरुषों को
संवेदनशील बनाना।
निष्कर्ष
रूप में
हम कह
सकते हैं
कि इन
सभी अलग-अलग तरीकों
से शांति
स्थापना व
अहिंसक कार्रवाईयों
को ‘युवा
नेतृत्व’ में
एक साथ
प्रोत्साहित करना एक महत्वपूर्ण अजेंडा
है। यह
सुनिश्चित करने के लिए चिंतनशील
कार्रवाईयां की जानी चाहिए कि
मौजूदा पीढ़ी
द्वारा हासिल
सफलताएं यों
ही खो
न जाएं,
बल्कि वे
अपनी थाती
को अगली
पीढ़ी तक
ले जाई
जाएं। आज
पहले से
कहीं ज़्यादा
शांति की
ज़रूरत है।
इसी वजह
से अहिंसा
और शांति
पर अन्तर्राष्ट्रीय
महिला सम्मिलन
भारत में
अक्तूबर 2016 में आयोजित होने जा
रहा है।
भारत में
पहली बार
शांति पर
महिलाओं की
पहल इतने
बड़े पैमाने
पर होने
वाली है।
इससे अहिंसक
कार्रवाईयों में होने वाले विभिन्न
प्रयोगों को
अन्तर्राष्ट्रीय व भारतीय एक्टिविस्टों के
साथ जानने-सीखने के
रास्ते खुलेंगे।
इस सम्मिलन
में अन्तर्राष्ट्रीय
और राष्ट्रीय,
कार्यकर्ता/एक्टिविस्ट और अकादमिक, गांधीवादी
और नारीवादी,
और वे
सभी लोग
एक साथ
इकट्ठा होंगे
जो अहिंसा
को उसके
व्यापक अर्थ
में अपने
काम, समग्र
सोच और
वैचारिक संदर्भों
में विशेष
रूप से
इस्तेमाल करते
रहे हैं।
हमारा सपना
है सबके
साथ शांतिपूर्वक
मिलजुलकर रहना
और इसीलिए
न्याय, शांति
और समानता
के लिए
समाज परिवर्तन
की दिशा
में अहिंसक
कार्रवाइयों का इस्तेमाल करना एक
महत्वपूर्ण कदम होगा।
आलोक कुमार
मखदुमपुर बगीचा,दीघा घाट,पटना।
आलोक कुमार
मखदुमपुर बगीचा,दीघा घाट,पटना।
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