Monday 11 March 2013

हथियाकान्ध शिवचक मुसहरी में बदलाव

हथियाकान्ध शिवचक मुसहरी में बदलाव

  बिहार में रहने वाले मुसहर समुदाय की तस्वीर और तकदीर नहीं बदली। वह भी आजादी के 65 साल के बाद भी हालांकि अपने अमूल्य वोट से कितने नेताओं की तकदीर और तस्वीर बदलने में योगदान दिये हैं। इस समुदाय का मरण महीना आश्विन होता है। उस समय खेत में काम नहीं मिलता है। भूखमरी का आलम हो जाता है। दो जून की रोटी  का जुगाड़ करने के सिलसिले में दर-दर भटकने को मजबूर हो जाते हैं। किसी तरह से चूहा पकड़ने, मछली मारने, घोंघा चुनने, सितूआ बिनने ,मेढ़क पकड़ने में लग जाते हैं।
     दानापुर प्रखंड में ही दानापुर छावनी है। इस छावनी से मात्र तीन किलोमीटर दक्षिण एवं दानापुर रेलवे स्टेशन से पश्चिम, उत्तर कोना पर हथियाकान्ध शिवचक मुसहरी अवस्थित है। इस मुसहरी तक पहुंचने के लिए यातायात की सुविधा है। केवल दानापुर बस स्टैण्ड से टेम्पू पकड़कर हथियाकान्ध जाकर उतर जाना है। यहां से केवल आधा किलोमीटर ही उत्तर की ओर पैदल चलकर मुसहरी में जाया जा सकता है। मुसहरी को बसाने में शिवचक गांव के रामवृक्ष सिंह जी का हाथ रहा है। आरंभ में रामवृक्ष बाबू ने अपने खेत में काम करवाने के ख्याल से दूसरे गांव से एक पुरूश और एक महिला को पकड़कर लाये थे। तब उन्होंने अपने ही खेत में रहने की इजाजत दे दिये। दोनों झोपड़ी बनाकर रहने लगें। मुसहरों को जमीन के एवज में साल में धान की रोपनी का कार्य मुफ्त में काम करके चुकाना पड़ता था। मुसहरों की आबादी बढ़ती गयी और खेत की जमीन को हथियाते चले गये। आज 5 कट्टे में 30 परिवार रहते हैं। कुल जनसंख्या 76 हो गयी है। 19 पुरूष और 15 महिलाएं। यहां पर 15 लड़कों की संख्या में 27 लड़कियों की संख्या है। इसमें लड़किया बाजी मार ली हैं।
  सामाजिक कार्यकर्ता नरेश मांझी का कहना है कि यहां पर जैसे-जैसे आदमी बढ़ने लगे तो झोपडियों की संख्या भी बढ़ने लगी। यह नियम बना दिया  गया कि साल में रोपनी के समय एक या दो दिन मुफ्त में किसान के पास काम करना ही होगा। कल्याणकारी राज्य की सरकार के द्वारा इंदिरा आवास योजना के तहत सौ फीसदी मकान निर्माण करा दिया गया है। इससे बेगारी करने वाले मुसहर समुदाय को काफी राहत मिल गयी है।
  श्री मांझी ने कहा कि हम लोगों को समाज से दरकिनार कर इस लिए कर दिया जाता है ताकि सुबह में निकलकर जल्दी से खेत में काम करना शुरू कर दें। अन्य जातियों के लोगों के द्वारा अशिक्षित समाज को हीनभावना से देखा जाता है। जो आज भी बरकरार है। हीनभावना के चलते ही किसानों के द्वारा जिस थाली में भोजन और जिस लोटा में पानी दिया जाता था। उस बर्त्तन को अलग से सब दिनों के लिए रखा जाता था। और तो और जब किसान थाली में भोजन डालते थे तो अलग से दूसरे थाली से ही गिराते थे। आज भी बड़े किसानों के पास होने वाले वैेवाहिक रस्म में एक ही लाइन में भोजन नहीं करते हैं। उनको अलग से बैठाकर खिलाया जाता है। अगर इस समुदाय को दावत के लिए नहीं बुलाया गया तो अगले दिन बासी भोजन देने के लिए बुला भेजा जाता है। इस तरह का अमानवीय कदम सभ्य जनों के द्वारा उठाया जाता है। जो समाज के लिए क्लंकित बात है। 
    पारिवारिक माली हालत खराब रहने के कारण कभी भी स्वास्थ्य को लेकर चितिंत नहीं रहे। अस्वस्थकर वातावरण में रहना और उसी परिवेश में रहने लायक स्यवं को ढाल लेना। गंदे कपड़े पहने के अभ्यस्त हो जाते हैं। एक हफ्ता तक स्नान ही नहीं करते हैं। उनके घर-द्वार की सफाई ही नहीं की जाती है। ठंडक मौसम में ठंड की वजह से स्नान नहीं करते हैं। धूप में काम करने से काला रंगवाले स्नान ही नहीं करते हैं जिसके कारण हाथ-पैर में गंदगी की मोटी परत जम जाती है। अन्य समाज के लोग इनके बच्चों के गंदे शरीर एवं कपड़ों की स्थित को भांपकर दूर से पहचान लेते हैं कि यह मुसहर है।
  इसके कारण बीमारी के गाल में समा जाते हैं। संक्रामक बीमारी धड़ धबौचता है। जानलेवा बीमारी के चक्कर में पड़ जाने के बावजूद भी अच्छे डाक्टरों के जाकर परामर्श नहीं लेते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि राह चलते किसी की मौत हो जाती है। इस तरह की मौत कोडायनके करतूत मानते हैं। शिक्षा से नाता नहीं जोड़ने के कारण गांव के ओझा-गुनी की चांदी है। झोलाछाप चिकित्सक भी बहती गंगा में हाथ धोने से  हिचकते नहीं है। किसी प्रकार की बीमारी होने पर लोग भगत से झाड़फूंक कराते थे। इस गांव के चन्द्रिका मांझी झाड़फूंक के चक्कर में अपनी बेटी,नाती,नतनी एवं पत्नी से हाथ धो बैठा।
 हां, शिक्षा के प्रति दिमाग में कभी ख्याल ही नहीं आया। शिक्षा क्या सीखाती है कोई मायने नहीं रखता है। वहीं इस समाज के लोग राजनीति नाम का कोई चीज नहीं था। सिर्फ इतना जानता था कि वोट पड़ता है। वोट देने के लिए लोग कहने आते थे और समझाते थे कि इस तरह से वोट दिया जाता है। चालाक आदमी जैसे कहता कहता था वैसे करते थे। मतलब नहीं रखते थे। कोई रहम करने वाला व्यक्ति कहा भी तो इसको असर नहीं पड़ता था। जिसके कारण चार-पांच पीढ़ी तक शिक्षा का दीप जला ही नहीं।
   








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