नवाखानी में धार्मिक और करमा में राजनीति नेताओं का मिलता सहयोग
पटना। झारखंड प्रदेश का गठन 15 नवम्बर,2000 को हुआ। अभी बिहार में रहने वाले आदिवासियों की संख्या करीब 8 लाख है। सभी आदिवासी बिहार में खुशी से रहते हैं। इन लोगों ने अपनी पहचान और अस्मिता कायम रखने के लिए संस्था भी बनाये हैं। सभी आदिवासी मिलकर पर्व त्योहारों के अवसरों पर मांदर बजाकर मजा लुटते हैं। इनको धार्मिक और राजनीतिज्ञों का सहयोग मिलता है। नवाखानी में धार्मिक और करमा में राजनीति नेताओं का सहयोग मिलता है। करमा में श्री उदय नारायण चौधरी, अध्यक्ष, बिहार विधान सभा भी शिरकत करके मांदर के धून में थिरकते नजर आते हैं।
खैर, आदिवासियों को लेकर लोग संवेदनशील हो जाते हैं। जन संगठन एकता परिषद के द्वारा आयोजित राष्ट्रीय स्तर के साधारण बैठक में आये वक्ता सामाजिक कार्यकर्ता अजय रस्तौगी ने कहा कि आदिवासी हमारा भविष्य के गुरू हैं। जो सदियों से वनभूमि पर रहते हैं। वहां पर मूलभूत सुविधाएं नहीं है। वनभूमि में उपजे अनाज,फल,वृक्ष आदि के सेवन करके व सहयोग लेकर जीते और मरते रहते हैं। कम आमदनी में बेहतर ढंग से जीवनलीला चलाते हैं। उसी तरह देश के प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान जवाहर लाल नेहरू विश्वविघालय (जेएनयू) ने आदिवासियों की भाषा को लेकर संवेदनशीलता दिखायी। जे.एन.यू. और आई.सी.एस.एम.आर के संयुक्त तत्तावधान में दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी 29.30 जुलाई,2013 को भारतीय भाषा केन्द्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविघालय, नई दिल्ली में किया गया। इसमें दीघा थाना क्षेत्र के कुर्जी पुल के बगल में रहने वाले और डाक विभाग से अवकाश प्राप्त लेखा निदेशक जोआकिम टोप्पनों भाग लिया। भारतीय भाषा केन्द्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविघालय के सभागार में आदिवासी साहित्यः स्वरूप एवं संभावनाएं पर श्री टोप्पनों ने ‘मुंडारी’ साहित्य, स्वरूप और संभावनाएं विषय पर अपना शोध-पत्र प्रस्तुत किये। आदिवासी भाषाओं में शोध-पत्र पेश करने वाले 50 से अधिक वक्ताओं को प्रो.रामवक्ष अध्यक्ष भारतीय भाषा केन्द्र और समन्वयक डा.गंगा सहाय मीणा ने प्रमाण पत्र प्रदान किये।
आदिवासियों के संदर्भ में शोध पत्र पेश करने का सौभाग्य प्राप्त करके नयी दिल्ली से लौटे डाक विभाग से अवकाश प्राप्त लेखा निदेशक जोआकिम टोप्पनों ने कहा कि आदिवासी समुदाय के बीच में 460 जाति है। सभी मूलतः सरना हैं। जो प्राकृतिक प्रदत पेड-पौधों की पूजा किया करते हैं। बाद में धर्मान्तरण करके हिन्दु, ईसाई और बोध धर्म स्वीकार करते हैं। धर्म परिवर्तन करने के बाद भी परम्परागत भाषा उरांव, संथाली, मुंडा, हो, गौंड़ आदि बोलते हैं। सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण सिर्फ काम करो और खाओ के पथ पर ही अग्रसर हो गये। भाषा और अस्तिव की ओर ध्यान ही नहीं दिया। इसका खामियाजा यह हुआ कि आदिवासियों को दिक्कू दिक्कत देने लगे। दिक्कू का मतलब गैर आदिवासियों से है। जो आदिवासियों की तस्वीर को उल्टा-पुल्टा करके समाज के सामने पेश करते हैं। जरूरत है कि आदिवासी ही अपनी और समाज की तस्वीर को देश-विदेश-प्रदेश के सामने पेश करे। आदिवासी साहित्य में बहुत कुछ है। उसे प्रचार-प्रसार करे की जरूरत है। उनका कहना है कि हम लोग हिन्दी में काटना का प्रयोग करते हैं। मुंडारी में मनुष्य को काटना को ओनडका कहते है। वृक्ष को काटने को छोपा कहते हैं। कपड़ा धोने को सोबोद् कहते है। चेहरे को धोने को अबुगं कहते हैं। बाल धोने को नाड़का और मुख को धोने को पूइगं कहते है।
केन्द्र और राज्य सरकारों ने वतन से अंग्रेजों को खदेड़ने के बाद सोच समझ कर अनेक कानून बनाये हैं। उन कानूनों में बिहार घरेलू कामगार न्यूनतम मजदूरी अधिनियम-1948 भी शामिल है। इसके तहत घर के अंदर काम करने वालों को न्यूनतम मजदूरी देने का प्रावधान किया गया है। इस कानून के बारे में व्यापक जानकारी नहीं देने तथा कानून को विस्तार से प्रचारित नहीं करने के कारण घरेलू कामगारों का सामाजिक,आर्थिक,शारीरिक,मानसिक,धार्मिक आदि क्षेत्र में शोषण हो रहा है।
Alok Kumar