बाहर से आये और अंगद के पांव की तरह जम गए
अब भी कुछ लोग पैर जमाने को हैं बेताब
सवाल साफ है कि दूसरों का दुखड़ा दूर करने वाले को कौन दुख दूर करेगा? फिल्मी गाना में दूसरों का दुखड़ा दूर करने वालों का दुख भगवान दूर करते हैं।
पटना।
कुछ दिन बिहार
में अवश्य ही
रूतबा दिखाकर रसातल
में चले गए।
या। जो बाहर
से आये थे
वे अंगद के
पांव की तरह
जम गये। अब
भी कुछ लोग
पैर जमाने को
बेताब हैं।आज गांधी
मैदान में गांधी
प्रतिमा के पास
30 जानेमाने पत्रकार और गैर
पत्रकार उपस्थित होकर बैठक
किये। सोमवार 26 अगस्त
को गांधी मैदान से सीएनएन-आईबीएन के दफ्तर
तक रैली जाएगी।
इसके पहले शनिवार
24 अगस्त को गांधी मैदान में
बैठक की जाएगी।
रैली के बारे
में रणनीति बनायी
जाएगी।
आर्यावर्त और इंडियन नेशनः
हम
लोग किसी के
जाने के बाद
कहते हैं। ओ
जाने वाले हो
सके तो लौटकर
आना। आर्यावर्त और
इंडियन नेशन आया
भी तो बैरंग
चला ही गया।
पाटलिपुत्र टाइम्स आया और
समटाइम निकलाने के बाद
सदा के लिए
स्वाहा हो गया।
जनशक्ति चलाने वाले लोगों
के पास अब
शक्ति नहीं रहा
जिससे जन के
लिए जनशक्ति निकाल
सके। प्रयोग के
तौर पर साप्ताहिक
जनशक्ति पत्रिका निकाली गयी।
जो बरसाती मेढ़क
ही साबित हो
गयी। टरटराने के
बाद गायब हो
गयी।
प्रदीप और सर्चलाइट गॉनः
प्रदीप
के बदले हिन्दुस्तान
और सर्चलाइट की
जगह हिन्दुस्तान आ
गया। दोनों राष्ट्रीय
अखबार बनकर आये
थे। देखादेखी टाइम्स
ऑफ इंडिया और
नवभारत टाइम्स भी आ
गया। जल्द ही
चारों उफान पर
आये गये। आज
तो बेसहारा की
तरह गरीबों को
सहारा बनकर कम
कीमत पर बेचने
को मजबूर हो
गया। कुछ दिन
के बाद टाइम्स
ग्रुप ने नवभारत
टाइम्स को बंद
कर दिया। इसके
कारण कर्मचारी सड़क
पर आ गये।
इस बीच दैनिक
जागरण , राष्ट्रीय सहारा प्रभात
खबर, टेलीग्राफ भी
बाजार में आया
गया। आज की
तारीक में हिन्दी
अखबार में हिन्दुस्तान,दैनिक जागरण,प्रभात
खबर, राष्ट्रीय सहारा
और आज है।
वहीं अंग्रेजी में
टाइम्स ऑफ इंडिया,
हिन्दुस्तान टाइम्स और टेलीग्राफ
हैं।
पत्रकारों और गैर पत्रकारों पर लटकती तलवारः
अखबार
के मालिकों के
द्वारा सदैव पत्रकारों
और गैर पत्रकारों
पर तलवार लटकाकर
रखते हैं। आर्यावर्त,इंडियन नेशन,पाटलिपुत्र
टाइम्स, नवभारत टाइम्स,टाइम्स
ऑफ इंडिया, प्रदीप,
सर्चलाइट, हिन्दुस्तान आदि से
पत्रकारों और गैर
पत्रकारों को नौकरी
से हटा दी
जाती है। अभी-अभी सीएनएन-आईबीएन से 350 से
अधिक की नौकरी
समाप्त कर दी
गयी है। जो
अभी सड़क पर
आ गये हैं।
एक मोटे अनुमान के मुताबिक बीते आठ-नौ सालों में 10 हजार की सेवा समाप्तः
देश
के विभिन्न मीडिया
संस्थानों में हुई
छंटनी, जबरन या
सुनियोजित तरीके से इस्तीफे
लेकर या बंदी
के रास्ते तकरीबन
10 हजार से अधिक
पत्रकारों-गैर पत्रकारकर्मियों
को उनकी सेवा
से बाहर किया
गया है। टीवी-18
समूह के चैनलों
में पत्रकारों की
बेदखली से पहले
कोलकाता के शारदा
ग्रुप के चैनलों-अखबारों के 1500 से
अधिक मीडियाकर्मी सड़क
पर आ गए
हैं। इस समूह
के हजार से
अधिक पत्रकार और
गैर पत्रकार कर्मचारी
सड़क पर हैं।
श्रमजीवी पत्रकार और अन्य
कर्मी कानून-1955 को
सरकारों और मीडिया-मालिकों की मिलीभगत
से बेमतलब बना
दिया गया है।
देश के श्रम
कार्यालयों और कानूनों
के पूरी तरह
मृतप्राय होने के
चलते पत्रकार-गैर
पत्रकारकर्मियों की बेरोजगारी
या उनके सेवा
से हटाए जाने
के बारे में
कोई अधिकृत आंकड़ा
नहीं आ सका
है। मीडिया समूहों
में ठेकेदारी व्यवस्था
के बढ़ते दबदबे
और अपने कुछेक
नेताओं की कारगुजारियों
के चलते अब
यूनियनें भी खत्म
हो गई हैं
या कंकाल बन
गई हैं। सरकार
और पक्ष-विपक्ष
के राजनेताओं को
मीडिया उद्योग के मौजूदा
परिदृश्य के बारे
में सबकुछ मालूम
है पर सच
यह है कि
वे पत्रकारों या
कर्मचारियों के लिए
कुछ भी नहीं
करना चाहते। वे
हमेशा से मालिकों
के साथ रहते
आए हैं। ऐसे
माहौल में संसद
के पिछले सत्र
में सूचना प्रसारण
मंत्रालय से सम्बद्ध
संसद की स्थायी
समिति की 47 वीं
रिपोर्ट की सिफारिशें
लागू कराने का
सरकार पर दबाव
बनाया जाय तो
शायद भारतीय मीडिया
की फौरी समस्याओं
और चुनौतियों को
कुछ हद तक
संबोधित किया जा
सकेगा। संसदीय समिति ने
मीडिया संस्थानों में सभी
पत्रकारों को ठेके
पर रखने की
प्रथा को पूरी
तरह खारिज किया
है।
दिल्ली में स्वर मुखरः
आधी
रात के बाद
कार्यक्रम की घोषणा
करने के बाद
अगले दिन दोपहर
दो बजे तक
32 लोग जंतर मंतर
पर न केवल
जुट जाएँ बल्कि
लगभग पाँच घंटे
तक मिल-जुलकर
आगे की रणनीति
तय करें तो
इसका मतलब है
कि मुद्दे में
सचमुच दम है।
मुद्दा है सीएनएन-आईबीएन के लगभग
350 मीडियाकर्मियों को रातों-रात नौकरी
से निकाल दिए
जाने का। मुद्दा
है उन गर्भवती
महिलाओं के अधिकारों
की रक्षा का
जिन्हें अचानक नौकरी चले
जाने के बाद
स्वास्थ्य से लेकर
गृहस्थी तक के
तमाम मोर्चों पर
संघर्ष करना है।
मुद्दा उन लोगों
के श्रम की
गरिमा की रक्षा
का है जिन्हें
अनुबंध की तमाम
अटपटी शर्तों को
आँख मूँदकर स्वीकार
करके अपना पेट
पालना पड़ता है।
मुद्दा तो जनता
को गूँगा बनाने
की साज़िश के
विरोध का भी
है जिसके तहत
ऐसे लोगों को
चुन-चुनकर नौकरी
से निकाला जाता
है जो जनवादी
पत्रकारिता की हत्या
में शामिल होने
से इनकार करने
की हिम्मत दिखा
सकते हैं। अगर
आप ऐसे मौकों
पर चुप बैठे
रहते हैं तो
कल आपके लिए
भी शायद ही
कोई आवाज़ उठाएगा।
पटना में सोमवार को रैली निकाली जाएगीः
आज
गांधी मैदान में
गांधी प्रतिमा के
पास 30 जानेमाने पत्रकार और
गैर पत्रकार उपस्थित
होकर बैठक किये।
सोमवार 26 अगस्त को गांधी मैदान
से सीएनएन-आईबीएन
के दफ्तर तक
रैली जाएगी। इसके
पहले शनिवार 24 अगस्त को गांधी मैदान
में बैठक की
जाएगी। रैली के
बारे में रणनीति
बनायी जाएगी।
संवाद-सूत्र के भावनाओं के साथ अखबार के मालिकों ने किया खिलवाड़ः
पटना
से प्रकाशित हिन्दुस्तान
ने मोहल्ले-मोहल्ले
से संवाद-सूत्र
तैयार करने के
लिए नौजवानों का
चुनाव किया। इनको
प्रशिक्षण दिया। कार्यालय में
हर क्षेत्र में
काम सिखाया ।
जब संवाद-सूत्र
प्रशिक्षित हो गए।
जब वेतनमान देने
का समय आया
तो उनसे लिखाया
गया कि हम
टाइमपास और शौकिया
पत्रकारिता कर रहे
हैं। उसके चंद
दिनों के बाद
सेवा कार्य से
दूध में पड़े
मक्खी की तरह
बाहर कर दिया।
सरकार से विज्ञापन के लिए सब कुछ करेगाः
अखबार
वालो केवल सरकार
से विज्ञापन हड़पने
के लिए तैयार
रहते हैं। सरकार
के पक्ष में
गुनगान जन्मसिद्ध अधिकार हो
गया है। आजकल
कमोवेश इलेक्ट्रोनिक्स मीडिया सरकार के
खिलाफ मुंह खोलने
से पहरेज नहीं
कर रही है।
मगर प्रिंट मीडिया
ने सरकारी विज्ञापन
के लिए सब
कुछ करेगा की
नीति पर अग्रसर
है। छोटे अखबार,मासिक पत्रिका और
साप्ताहिक अखबार को सरकारी
विज्ञापन मिलता ही नहीं
है। इसके कारण
इनके मालिक बेगारी
करवाने को तैयार
हैं। ऐसे अनेक
पत्रकार हैं जो
केवल न्यूज भेजते
हैं ताकि समाज
में इज्जत बना
रहे। अखबार में
नाम छपवाने में
लगे रहते हैं।
इनको अखबार मालिकों
के द्वारा एक
पैसा भी नहीं
दिया जाता है।
जबकि अपनी ओर
से खासा मेहनत
करके न्यूज संग्रह
करके प्रेषित किया
करते हैं।
आलोक कुमार