Friday 17 January 2014

धर्मगुरूओं की लड़ाई में पीसता आदिवासी समाज





नेम्हा बाईबल प्रकरण के बाद लालपाड़ साड़ी के बहाने ईसाई और सरना धर्मगुरूओं के बीच झारखंड में फिर से धर्मयुद्ध छिड़ गया है, जिसमें आम आदिवासी पीसता हुआ दिखाई पड़ रहा है। यह विवाद रांची के धुर्वा स्थित सिंगपुर में माता मरियम को लालपाड़ साड़ी पहनाकर स्थापित करने के बाद पैदा हुआ है। हालांकि उस प्रतिमा को देखने के बाद कहीं से भी यह ख्याल नहीं आता है कि वह मदर मेरी है और ईसाई धर्मगुरूओं के बीच भी इसको लेकर विवाद है। अधिकांश यह मानते हैं कि उस प्रतिमा को देखने से मामा मरियम के बजाये एक आदिवासी महिला और उसका बच्चा दिखाई देता है जिनके प्रति धार्मिक और आध्यात्मिक भावना नहीं निकलती है। लेकिन चूंकि इस प्रतिमा का अनावरण कैथोलिक धर्मगुरू कॉर्डिनल तेलेस्फोर पी. टोप्पो ने किया है इसलिए कुछ लोग इसे अपना हार-जीत या मानसम्मान से जोड़कर देख रहे हैं। वहीं दूसरी ओर सरना धर्मगुरू भी इसे धर्म से ज्यादा आदिवासी समाज के पहचान से जोड़ने का प्रयास में जुटे हुए हैं, जिसे विवाद बढ़ता जा रहा है। दोनों पक्षों के धर्मगुरू दिमाग के बजाये अपने-अपने दिल से काम ले रहे हैं फलस्वरूप, समाधान नहीं निकल रहा है और आदिवासी समाज में एक-दूसरे के प्रति विद्वेष की भावना और मजबूत हो रहा है।  
25 अगस्त, 2013 को सरना धर्मावलंबियों ने सिंगपुर के आमसभा में कई मांग रखी जिसपर विश्लेषण करना चाहिए कि क्या ये मांग जायज हैं या इसके द्वारा वे वृहद राजनीति का हिस्सा बनना चाहते हैं? सरना धर्मगुरूओं का तर्क है कि जो आदिवासी सरना धर्म को मानते हैं वहीं आदिवासी हैं इसलिए ईसाई धर्म को अपनाने वालें आदिवासियों को आदिवासी नहीं माना जाना चाहिए। इस तर्क को मान भी लिया जाये तो सवालों की झड़ी लग जायेगी, जिसका जवाब देने का मतलब दलदल में फंसते जाने जैसा होगा। क्या कोई धर्म पर किसी एक समुदाय का कॉपीराईट हो सकता है? क्या सरना धर्म स्वीकार करने वाले गैर-आदिवासी भी आदिवासी का दर्जा प्राप्त करेंगे? क्या कोई गैर-आदिवासी महिला सरना आदिवासी से शादी करती है तो वह भी आदिवासी बनकर आरक्षण का लाभ उठा सकती है? देश के कई हिस्सों में सरना धर्म के अलावे आदिवासियों का अपना-अपना धर्म है। जैसे नियमगिरी के  डांगेरी कौंध आदिवासी लोग नियम राजा का पूजा करते हैं उसी तरह असम के बोड़ो आदिवासियों का अपना धर्म है तो क्या उन्हें आदिवासी नहीं माना जायेगा क्योंकि वे सरना धर्म को नहीं मानते हैं? झारखंड के टाना भगतों के बारे में क्या राय है? वे तो हड़िया-दारू का सेवन भी नहीं करते हैं जबकि सरना धर्म के प्रत्येक परंपरा में हड़िया का उपयोग किया जाता है तो क्या टाना भगत आदिवासी नहीं हैं? इसी तरह दक्षिण भारत में सरना धर्म का नामोनिशान नहीं है तो क्या वहां के आदिवासियों को आदिवासी का दर्जा नहीं मिलना चाहिए? देश का बहुसंख्यक आदिवासी हिन्दु धर्म का अनुयायी है तो क्या वे आदिवासी नहीं हैं या यह मान लिया गया है कि सरना धर्म हिन्दु धर्म का ही छोटा रूप है

सरना धर्मगुरूओं की दूसरी मांग है कि ईसाई आदिवासियों को पूर्णरूप से अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाये क्योंकि उनकी जनसंख्या झारखंड में सिर्फ 15 प्रतिशत है लेकिन अनुसूचित जनजाति कोटे के 85 प्रतिशत आरक्षित सीटों पर वे काबिज हैं और धार्मिक अल्पसंख्यक होने के कारण आरक्षण का दोहरा लाभ उठा रहे हैं। इस मामले पर करपरा हांसदा द्वारा 2002 में झारखंड उच्च न्यायालय में दायर याचिका को उच्च न्यायालय ने 2008 में सुप्रीप कोर्ट के फैसले ‘‘स्टेट ऑफ केरला बनाम चन्द्रमोहन’’ का हवाला देकर खारिज करते हुए स्पष्ट किया है कि किसी व्यक्ति के कोई धर्म को अपनाने से उसकी समुदाय की सदस्यता खत्म नहीं होती है। सवाल यह भी है कि क्या सरना धर्मगुरू सरना धर्म को सिर्फ आरक्षण के नफानुकसान तक सीमित करेंगे? सरना कोड की मांग सरना धर्मावलंबी कई वर्षों से कर रहे हैं इसलिए सवाल यह भी है कि सरना कोड मिलने पर सरना धर्मावलंबी बहुसंख्यक धर्म का हिस्सा होंगे या वे भी धार्मिक अल्पसंख्यक ही कहलायेंगे? ऐसी स्थिति में क्या वे संविधान के अनुच्छेद - 29 एवं 30 में अल्पसंख्यकों के लिए  प्रदत्त अधिकार का उपयोग नहीं करेंगे? क्या उनके लिए भी यह दोहरा लाभ नहीं होगा? हकीकत यह है कि आदिवासियों को धार्मिक अल्पसंख्यक का लाभ नहीं मिलता है बल्कि उन्हें आरक्षण अनुसूचित जनजाति कोटे से ही दिया जाता है। आज भी आदिवासियों के लिए आरक्षित पद खाली पड़ी हुई है। इसलिए आरक्षण को धर्म के साथ जोड़ना तर्कसंगत और न्यायसंगत नहीं है। अल्पसंख्यक का लाभ जरूर ईसाई संस्थानों को मिल रहा है लेकिन आम ईसाई आदिवासी को नहीं। और जब सरना धर्म को भी कोड मिलने से अल्पसंख्यक का लाभ मिलेगा। सवाल यह भी हैं कि जब असम, अंडामन और दिल्ली इत्यादि में रहने निवास करनेवाले आदिवासियों को आरक्षण का लाभ नहीं मिल रहा है तो क्यों वे आदिवासी नहीं है?
सरना धर्मगुरूओं ने यह भी मांग किया है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को लागू किया जाये, जिसमें कहा गया है कि यदि कोई भिन्न धर्म में धर्मांतरण के कारण, काफी समय पूर्व वह उसके पूर्वज रूढ़ि, अनुष्ठान और अन्य परंपराओं का पालन नहीं कर रहा हैं, जिन्हें उसके जनजाति के सदस्यों द्वारा अनुशरण किये जाने की अपेक्षा की जाती है और उत्तराधिकार, विरासत, विवाह इत्यादि की रूढ़िगत विधियों का भी अनुशरण नहीं कर रहे हैं, तो उसे जनजाति का सदस्य स्वीकार नहीं किया जा सकता है। इस परिप्रेक्ष में ईसाई आदिवासियों को देखा जाये तो सरना धर्म को छोड़ने के बावजूद, वे आज भी अपने पूर्वजों की भाषा, संस्कृति और विरासत को कायम रखे हुए हैं। सामुदायिक जीवन, रहन-सहन, नाच-गान, रूद्विवादियों, हड़िया का व्यवहार, पर्व-त्योहारों को मानना तथा शादी-विवाह में परंपराओं का अनुशरण ये सभी चीजें ईसाई आदिवासियों के जीवन का हिस्सा हैं। वे सरना धर्म के परंपरा को छोड़कर आदिवासियों के सभी सामाजिक परंपरा और संस्कृति का अनुसरण करते हैं इसलिए यह कहना उनके साथ अन्याय है कि ईसाई आदिवासी अब आदिवासी परंपरा को नहीं मानते हैं।

सरना धर्मगुरूओं का यह भी मांग था कि गिरजाघरों और ईसाई संस्थानों में करमा और सरहुल पर्व नहीं मनाया जाये, जिसको ईसाई धर्मगुरूओं ने मान लिया। लेकिन सवाल यह भी है कि अन्य धर्मों के धर्मगुरूओं को इसी तरह की मनाही क्यों नहीं की गई और क्या आदिवासी होने के लिए करमा और सरहुल पर्व मनाना आवश्यक है? देश के कौन सा संविधान और कानून में यह लिखा हुआ है? क्या देश के सभी आदिवासी समुदाय करमा और सरहुल पर्व मनाते हैं? हकीकत यह है कि करमा और सरहुल पर्व मौलिक रूप से उरांव आदिवासियों का पर्व हैं और अधिकांश आदिवासी समुदाय इन त्योहारों से बेखबर रहते हैं तो क्या वे आदिवासी नहीं है? सवाल यह भी है कि क्या गाय का बछड़ा भैंस का पाड़ा बन सकता क्योंकि सरना धर्मगुरू यही कोशिश में जुटे हुए हैं? प्रकृति के नियमानुसार आदिवासी का दर्जा प्राप्त करने के लिए एक बच्चे को आदिवासी मां-बाप से जन्म लेना ही काफी है, यानी आदिवासी बनने के लिए आदिवासी का वंशज होने के अलावा दूसरे योग्यता की जरूरत नहीं है। इसमें भाषा, संस्कृति, परंपरा, वेश-भुषा, खान-पान इत्यादि बाद में जुड़ जाता है, जो आदिवसी समाज के अस्तित्व के लिए जरूरी है। लेकिन इसमें धर्म कहीं से भी आड़े नहीं आती है। धर्म और विश्वास एक अलग ही विषय है। अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा ‘‘आदिवासी’’ की दी गई परिभाषा को सरना धर्मगुरू कैसे नाकार सकते हैं? क्या यह उनके आज्ञानता का परिणाम नहीं है?

आदिवासियों के बीच धर्म के आधार पर विभेद विशेष तौर पर उरांव आदिवासी समुदाय के धार्मिक, राजनैतिक और सामाजिक नेताओं के आपसी प्रतिस्पर्धा का परिणाम है, जिसे वे पूरे आदिवासी समाज पर थोंप रहे हैं। बिरसा मुंडा ने भी मिशनरियों पर गंभीर सवाल उठाये थे इसलिए मुंडा समाज भी इसमें अपनी हिस्सेदारी मानता है, लेकिन उन्होंने धर्म को आदिवासियों के पहचान से कभी नहीं जोड़ा उनका तर्क यहां तक सीमित था कि गोरे लोग एक जैसे हैं। इसलिए बाद में वे सरना के बजाये वैष्नव पंथ की ओर रूख कर गए। मौलिक तौर पर देखा जाये तो ईसाई और सरना धर्मावलांबियों में दोनो तरफ से एक दूसरे पर तीर छोड़ने वाले अधिकांश उरांव आदिवासी ही हैं, जिसकी शुरूआत कार्तिक उरांव ने किया था। उन्होंने ही ईसाई आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति का दर्ज नहीं देने की मांग की थी। लेकिन उनका तीर भी सिर्फ ईसाई आदिवासियों की तरफ चलता रहा लेकिन हकीकत में उनका परिवार भी हिन्दु धर्म का अनुयायी रहा है जो कहीं से भी गलत नहीं है लेकिन उनके दोहरा चरित्र को दर्शाता है और आज सरना धर्म के नाम पर हल्ला बोलने वालों का चरित्र भी उनसे भिन्न नहीं है।

आदिवासियों के घरों का सर्वे किया जाये तो सबसे ज्यादा घरों में ‘‘सरना’’ धर्म से संबंधित तस्वीरों के बजाये हिन्दू देवी-देवताओं का फोटो टंगा हुआ मिलेगा। हिन्दू भगवान और देवियों के प्रतिमा दिखेंगे और यहॉं तक की शादी-विवाह के कार्ड में भी गणेश भगवान का चित्र ही छापा जाता है। वे तीर्थस्थल के रूप में वैष्णों माता, पुरी मंदिर और बालाजी मंदिर जाते हैं। यह धर्मपरिवर्तन का परिणाम नहीं है तो और क्या है? इस बात को कभी भी नहीं झुठलाया जा सकता है कि सरना और हिन्दु दो अलग-अलग धर्म हैं। इसका जवाब कौन देगा कि क्योंसरना स्थलोंमें मंदिर का निर्माण होता रहा है? 2008 में आरएसएस प्रमुख सुदर्शन ने झारखंड के आदिवासी बहुल इलाका में जाकर यह कहा था कि यहां आदिवासी नहीं रहते हैं सभी लोग मूलवासी है। सरना धर्मगुरूओं और तथाकथित नेताओं को सुदर्शन के खिलाफ मुंह खोलने की हिम्मत क्यों नहीं हुई? क्या सही में इन्हें सरना धर्म की चिंता है या वे धर्म के नाम पर सिर्फ राजनीति कर रहे हैं? क्या यह सही नहीं है कि वे सिर्फ ईसाई धर्मावलंबियों को अपना निशाना बनाते हैं?

सवाल यह भी है कि धर्म से संबंधित प्रत्येक विवाद, विरोध प्रदर्शन और उन्माद भाजपा के ऑफिस तक ही जाकर क्यों रूकती है? ऐसी स्थिति में लोग भाजपा पर क्यों आरोप लगाये कि यह पार्टी धार्मिक उन्माद फैलाकर ही सत्ता हासिल करना चाहती है? इस तरह के विवाद चुनाव के इर्द-गिर्द ही सामने आते हैं और सबसे मजेदार बात यह है कि धार्मिक विवाद से चर्चा में आने वाले नेताओं को भाजपा का ही टिकट क्यों मिलता है? क्या ऐसे नेता भाजपा का टिकट हासिल करने के लिए धार्मिक मामलों को हवा देते हैं? यह भी गौर करने वाली बात है कि सरना धर्मगुरूओं ने जो मांग उठायी है उसे 2008 में भाजपा विधायक समीर उरांव, कोचे मुंडा, नीलकंठ सिंह मुंडा, पुतकर हेंब्रम और ताला मारंडी ने झारखंड विधानसभा में जोरशोर से उठाया था। नेम्हा बाईबल प्रकरण में आयोजित सरना महापंचायत को भी भाजपा नेताओं ने ही संबांधित किया था और अब लालपाड़ मसले पर भी भाजपा नेता खुला समर्थन दे रहे हैं इसलिए यह आरोप क्यों लगाया जाये कि लालपाड़ साड़ी के बहाने 2014 के चुनाव का रिहर्सल किया जा रहा है? क्या सरना धर्मगुरू और भाजपा के पास इन सवालों का जवाब है?

धर्म के नाम पर राजनीति तो हो ही रही है लेकिन यह भी कड़वी सच्चाई है कि ईसाई और सरना धर्मगुरूओं के अहांकार की लड़ाई में आदिवासी समाज पराजित होता दिखता है। इसलिए इन धर्मगुरूओं से पूछा जाना चाहिए कि इन्होंने आदिवासी समाज, उनकी भाषा, संस्कृति, जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए क्या किया है? क्या यह सही नहीं है कि एक तरफ जहां ईसाई धर्मगुरू आदिवासियों की जमीन पर बड़े-बड़े संस्थान खड़ा कर मुनाफा कमा रहे हैं और वहीं सरना धर्मगुरू आदिवासी जमीन लुटाकर अपना घर भर रहे हैं? जो लोग धार्मिक मुद्दा को हवा दे रहे हैं उनका पिछला इतिहास क्या किसी से छुपी हुई है? क्या यह सही नहीं है कि ये लोग टाटा, जिंदल, एस्सा जैसी कंपनियों से पैसा लेकर सरहुल मिलन समारोह का आयोजन करते है जबकि आदिवासी समुदाय अपनी जमीन बचाने के लिए इन कंपनियों के खिलाफ लड़ रही है? क्या सरना धर्मगुरू और नेताओं को कांके नगड़ी का दर्द दिखाई नहीं देता है? आज आदिवासी समाज कई टूकड़ो में बंट चुकी है इसलिए अपना उल्लू सीधा करने के लिए तोड़ने के बजाये आदिवासी समाज को जोड़ने की जरूरत है। मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना लेकिन इन धर्मगुरूओं को कौन समझाये कि वे धर्म के मूल सिद्धांत का उल्लंघन कर रहे हैं। इसलिए मैं ईश्वर से दुआ करता हूं कि ‘‘हे प्रभु इन्हें क्षमा मत करना क्योंकि ये अपनी झूठी शान बचाने के लिए आदिवासी समाज में फूट डाल रहे हैं’’ 









- ग्लैडसन डुंगडुंग मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं।