Sunday 30 November 2014

बिहार के 84 हजार आशा कार्यकर्ताओं को इंसाफ चाहिएः मंजुला




पटना। राजधानी पटना की सड़क लाले-लाल हो गया। लाल बैनर और लाल झंडों से पट गया। वहीं रानी रंग की साड़ी पहनकर नारा बुलंद करने वाली आशा कार्यकर्ताओं का चेहरा गुस्सा से लाल हो गया। बिहार सरकार ने गांवघर की बहुओं को विकास कार्य से जोड़ना शुरू किया। बहुओं को न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता आठवीं कक्षा तय किया गया। 2005 से बहाल करना आरंभ किया गया। किसी तरह की मजदूरी तय नहीं किया गया। केवल काम का दाम दिया जाता है।

यह कथन मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा) की महामंत्री मंजुला कुमारी का है। आगे कहा कि 9 साल से 24 घंटे आशा कार्यकर्ता काम करती हैं। एक विधायक पांच साल विधायकगीरी करते हैं तो आजीवन सुख सुविधाओं को भागने लगते हैं। वहीं सरकारी अस्पताल में समान कार्य करने वाली कार्यकर्ताओं को ठेंगा दिखा दिया जाता है। जो नाइंसाफी है।

आगे कहती हैं कि जबतक आशा कार्यकर्ता बहाल नहीं थे तबतक सरकारी अस्पताल भूत बंगला प्रतीक हो रहा था। जब से हमलोग कार्यारंभ किए हैं। सदर अस्पताल,अनुमंडल अस्पताल,प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, उप स्वास्थ्य केन्द्र और अतिरिक्त स्वास्थ्य केन्द्र गुलजार हो गए। डाक्टर और नर्स परेशान हो जाते हैं। मिनटभर भी दम लेने की फुर्सत नहीं मिलती। मां-बहन गर्भावस्था में टेटनस का टीका लगाती हैं। नियमित टीकाकरण और पल्स पोलियो अभियान में बच्चों को लाती हैं। मलेरिया और फलेरिया की दवा लेती हैं।

अब गांवघर में मां-बहनों का प्रसव नहीं होता है। अब संस्थागत प्रसव होता है। इससे मातृ और शिशु मृत्यु दर पर लगाम लगाया जा सका है। इतना करने के बावजूद भी हमलोगों के साथ अन्याय किया जा रहा है। बैठने की जगह तक नहीं है। साथ ही पूर्व मुख्यमंत्री के आश्वासन के बाद भी मानदेय नहीं दिया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट का आदेश भी अमल नहीं किया जा रहा है। वहीं संविधान में समानता का अधिकार से महरूम किया जा रहा है। सरकार से मांग की है कि कम से कम दस हजार रूपए मानदेय देना आरंभ कर दिया जाए।

आलोक कुमार


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