Saturday 25 February 2017

7 वर्षों से बिहार राज्य के 24 जिलों में श्रमिकों के बुनियादी मुद्दो को लेकर संघर्षरत

 असंगठित क्षेत्र कामगार संगठन


 ‘असंगठित क्षेत्र कामगार संगठन’ असंगठित कामगारों का एक सामाजिक जन संगठन है,जो विगत 7 वर्षों से बिहार राज्य के 24 जिलों में श्रमिकों के बुनियादी मुद्दो को लेकर संघर्षरत है। बिहार में जन आधारित मुद्दो पर सक्रिय विभिन्न जन संगठनों (दलित अधिकार मंच, दलित समन्वय बिहार,बीड़ी कामगार संगठन,मुसहर विकास मंच, महिला कामगार संगठन,बिहार विकलांग अधिकार मंच,महिला अधिकार मोर्चा, झुग्गी-झोपड़ी संघर्ष मोर्चा, राष्ट्रीय दलित मानवाधिकार अभियान एवं अन्य समान विचारधारा वाले स्वयंसेवी संस्था तथा सामाजिक-आर्थिक संस्थान) के संयुक्त सहभागिता से समाज के वंचित ,बेदखल एवं गरीब तबकों के श्रमिकों के हक अधिकार को सुनिश्चित कराने हेतु संकल्पित समर्पित है।
ज्ञातव्य हो कि राज्य में 96 प्रतिशत श्रमशक्ति का हिस्सा असंगठित क्षेत्र के दायरे में आता है जो राज्य एवं देश की अर्थव्यवस्था में अहम भूमिका निभा रहा है। परन्तु देश के संवैधानिक प्रावधान, श्रमिक विधान,श्रम नीतियां उनके जीवन स्तर को बेहतर बनाने, उनकी बुनियादी समस्याओं को निदान करने, वर्तमान की बाजारवाद एवं भूमंडलीयकरण नीतियों की चुनौतियां से निपटने में पर्याप्त नहीं है।
पूरे देश अथवा/बिहार राज्य में असंगठित कार्य क्षेत्र में अगर कामगारों की भागीदारी देखे तो सबसे अधिक दलित, आदिवासी,अत्यंत पिछड़ी जाति,पिछड़ी जाति एवं पसमान्दा मुस्लिम की संख्या है। साथ ही उन तमाम कामगारों को सामाजिक तौर पर रोजगार के सीमित अवसर संसाधन उपलब्ध है, साथ ही सरकारी स्तर से चलने वाली गरीबी उन्मूलन या कल्याणकारी योजनाएं अबतक आजादी के 70 वर्ष बाद भी सही मायने में नहीं पहुंच पा रही है। उन समुदायों को सामाजिक रूप से बहिष्ककरण,छुआछूत,भेदभाव तथा विभिन्न प्रकार की मानसिक ,शारीरिक उत्पीड़न घर से लेकर कार्य स्थल तककक आम तौर पर मिलती है। विशेष रूप से ऐसे समुदाय की महिलाएं शारीरिक, आर्थिक,मानसिक उत्पीड़न की शिकार होती रही है यहां तक की एक जगह पर कार्य कर रहे महिला-पुरूष की मजदूरी असमान एवं पुरूषों से लगभग आधी होती है।
हमारे देश की आर्थिक, सामाजिक संरचना अन्य देशों की तुलना में बिल्कुल भिन्न है, जिसमें मनुवादी सिद्धातों ने वर्णवादी व्यवस्था को जन्म दिया परिणामतः जाति व्यवस्था हमारे समाज में पूर्ण रूप से जड़ कर गई है। ज्यादातर असंगठित कामगार जो की वर्ण व्यवस्था में निचले पैदान पर आते हैं, उनकी भागीदारी/हिस्सेदारी,जल,जंगल,जमीन यानी प्राकृतिक संसाधनों तथा उत्पादन के संसाधनों पर बराबर की हिस्सेदारी से वंचित हैं। साथ ही वंचित समुदायों के बीच रोजगार के सीमित अवसर उपलब्ध है, ज्यादातर आज भी जातिगत आधारित या परम्परागत पेशे में ही में अपने जीविका निर्वाह के लिए आश्रित है। सरकार की तरफ से चलाए जा रहे विभिन्न प्रकार प्रकार के गरीबी उन्मूलन,रोजगार उन्मुखी,कल्याणकारी योजनाएं विशेष रूप से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति,अत्यन्त पिछड़ी जाति,पिछड़ी जाति, महिलाएं, पसमान्दा मुस्लिम समुदाय के सामाजिक, आर्थिक सशक्तिकरण हेतु चलाए जा रहे सभी तमाम योजनाएं सही मायने में सहज ढंग से उनतक नहीं पहुंच पा रही है। बिहार में लगभग 75 फीसदी असंगठित क्षेत्र के कामगार कृषि एवं उसपर आधारित रोजगार में कार्यरत हैं। वे सभी भूमिहीन मजदूर हैं, जो अपने खून-पसीने के बदौलत पूरे -समाज देश-दुनिया के लिए भोजन आदि की व्यवस्था तो करते हैं, किन्तु स्वयं भूख के चपेट से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं।
स्वतंत्र भारत में भूमि सुधार कानून तो बनी पर उनको अभी तक सही मायने में अभी तक जमीन पर नहीं उतारा गया है, जिनके कारण आर्थिक विषमता, सामाजिक कलह एवं विद्वेष तथा हिंसा के मार्ग प्रशस्त हो रहे हैं। यहां तक की असंगठित कामगारों को सम्मान पूर्ण ढंग से जीवन व्यतीत करने के लिए दो गज जमीन भी नसीब नहीं है।
शहरी क्षेत्रों में देखे तो असंगठित क्षेत्र के कामगारों की स्थिति और दयनीय है। गांव में उपजी सामाजिक,आर्थिक विषमताएं,जर्जर हो चुकी ग्रामीण अर्थ व्यवस्था से उबरने के लिए गांव से शहर की ओर रोजगार और जीविका की तलाश में आते हैं, शुरूआत में शहरों में अपने ठिकाने के लिए सार्वजनिक या गैर उपयोगी जमीन का इस्तेमाल करते है, और दोयम दर्जे की नागरिकता हासिल होने के बावजूद भी शहरों के संचालन में उनकी प्रमुख भूमिका होती है। जिनसे शहर चलती है, उनके रहने के तमाम बुनियादी सुविधाएं जैसे-सुरक्षित आवास, शुद्ध पेयजल,शौचालय,बच्चों की पढ़ाई,वोटर पहचान पत्र, तक मुहैया नहीं है। वोटर पहचान पत्र, आवासीय प्रमाण-पत्र नहीं होने के कारण सभी लाभकारी योजनाओं से वंचित रह जाते हैं। साथ ही शहरी क्षेत्र में कामगारों को न तो समुचित बाजार की व्यवस्था है और न ही रोजगार की निश्चितता के साथ ही अपमानित नागरिकता का दंश झेलते हैं।
स्बसे ज्यादा दयनीय हालत में सफाई कर्मी/ भंगी समुदाय, ईट भट्ठी में काम करने वाले महिला-पुरूष कामगार जो व्यवहार में बंधुवा मजदूर की श्रेणी में आते हैं। कृषि के क्षेत्र में भूमिहीन बटाईदारों के हित के लिए कोई कानून नहीं बनाया गया जिसके फलस्वरूप उनकी स्थिति बदतर है। 
अनुसूचित जनजाति या आदिवासी समुदाय को देखें जिनकी जीविका एवं जीवन शैली जंगलों एवं जंगल के संसाधनों पर मुख्य रूप से सदियों से आश्रित थी परन्तु आज के आधुनिक युग जो कि विकास के नये आयामों को छू रही है वहीं दूसरी तरफ सरकार की औघोगिक नीति और पूंजीपति इन्हीं आदिवासियों को जंगलों तथा उनके संसाधनों से बेदखल कर उन्हें हाशिए पर खड़ा कर दिया है। वनाधिकार कानून जो आदिवासियों के हक में बना है, वो भी सही ढंग से सरकारी उदासीनता के वजह से आदिवासियों का जंगल के भूमि का भी हक नहीं मिला। 
मनुस्मृति के सिद्धातों ने मातृ-सत्तात्मक से पितृसत्तात्मक व्यवस्था में पुरूषवादी दृष्टिकोण के तहत महिलाओं के स्वच्छंद अधिकारों पर व्यापक हमला किया है परिणामस्वरूप महिलाएं चाहे घरेलू या बाहरी कार्य में संलग्न है, उन्हें नाना प्रकार के प्रताड़ना दैहिक और मानसिक शोषण के साथ ही सामाजिक उत्पीड़न के दंश झेलने की आदि हो गयी है। आज भी असंगठित कार्यक्षेत्र में पुरूषों के वनिस्पत लगभग आधी पारिश्रमिक नियोजकों के ंद्वारा दी जाती है। इस प्रकार असंगठित क्षेत्र में यदि हम देखे तो ज्यादातर कामगार जो कि वंचित समुदाय से आते हैं वो आज ंभी अकुशल एवं अर्द्धकुशल कामगार के दायरे में आते हैं। जिनकी ंभागीदारी लगभग 70 प्रतिशत से भी अधिक है और जो आज भी भूख की चपेट और गरीबी की संस्कृति में पल रहे हैं।
राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की विकास की नीति ने नव उदारवाद एवं भूमंडलीकरण के बाजारवाद को जन्म देकर आर्थिक क्षेत्र में सक्रीण एवं तीव्र पूंजीवादी प्रतिस्पर्घा को भी जन्म दिया इसके कारण राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बनने वाली सामाजिक-आर्थिक विकास के नीति की निर्माण और धरातलीकरण मानवाधिकारों के मान्य सिद्धातों को ठेंगा दिखाकर तीव्र गति से गतिशील है। स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि हमारे देश की सरकारे नये आर्थिक सुधार नीति की निर्माण एवं देश का विकास के सिद्धांत की परिधि के केन्द्र में गरीब या असंगठित कामगार दूर तक दृष्टिगोचर नहीं होते हैं, जिसके कारण असंगठित कामगारों के हाथ से उनके जीविकोपार्जन के साधन ,उत्पादन के साधन, प्राकृतिक संसाधन सब कुछ छीनता चला जा रहा है। अर्थव्यवस्था पीछे की पृष्ठभूमि को देखा जाय तो संविधान वेताओं ने अपने देश में मिश्रित अर्थव्यवस्था की स्थापना उन उद्ेश्यों के साथ किया था जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र की प्रभुता को मजबूत आधार प्रदान करते हुए निजी क्षेत्रों पर संतुलित नियंत्रण कायम कर सके जिसके बदौलत राष्ट्रीय विकास के साथ-साथ उत्पादक शक्तियों के सामाजिक , आर्थिक और राजनीतिक विकास का उद्भव की समझ समाहित था। आने वाले भविष्य में नव उदारवाद एवं भूमंडलीकरण के बाजार की गति तमाम असंगठित क्षेत्र के कामगारों को न सिर्फ रोजगार विहीन कर जीविकोपार्जन के बाजार की गति तमाम असंगठित क्षेत्र के कामगारों को न सिर्फ रोजगार विहीन कर जीविकोपार्जन के संसाधनों से वंचित कर भूख और तंगहाली के चपेट में जकड़कर और भी ज्यादा हाशिए पे ला खड़ा करेगा।
साथ ही वर्तमान की नव उदारवाद एवं भूमंडलीकरण की दौर में वैश्विक बाजारवाद की प्रतिस्पर्घा ने असंगठित क्षेत्र के कामगारों की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक दृष्टिकोण से उतरोतर मरणासन्न की स्थिति में ढकेल दिया है।
ज्ञात हो कि बिहार राज्य से देश के अन्य राज्यों में लगभग दस से पन्द्रह फीसदी बाल मजदूर, बंधुआ मजदूर एवं अन्य अनौपचारिक पेशागत कार्यों कामगार जीविकोपार्जन के लिए पलायन को विवश है। साथ ही देश व राज्य बने विभिन्न श्रमिक विधान/कानून,योजनाओं व नीतियों को सरकार द्वारा व्यवहारिक रूप से लागू करने के प्रति उदासीन है। सरकार की न्याय के साथ विकास की अवधारण के केन्द्र में असंगठित कामगारों की बजाय पूंजीपति व कॉरपोरेट घरानों के लिए मार्ग प्रशस्त किया जा रहे हैं। देश व राज्य की नीतियों पर पूंजीपतियों प्रभुत्व बढ़ता जा रहा है।
वर्तमान के आधुनिक युग में राष्ट्रीय या अंन्तर्राष्ट्रीय स्तर की राजनीतिक के ध्रुव केन्द्र में मानवाधिकार को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है। साथ ही मानव अधिकारों को सुनिश्चित करने की मुख्य जिम्मेवारी चाहे संयुक्त राष्ट्र संघ हो या किसी भी देश की सरकार को है। इसी आलोक में संयुक्त राष्ट्र संघ, अन्तर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन एवं भारत का संविधान किसी भी मनुष्य या जनता के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए न्यूनतम बुनियादी आवश्यकताओं को मुख्य रूप से चिन्हित की है।
पोषण/पोषक तत्व       स्वच्छ पेयजल
आवास शिक्षा
स्वास्थ्य की सुविधा सुरक्षा व्यक्तिगत एवं आर्थिक
जनसंचार/यातायात
भारतीय संविधान भी इन्हें तमाम चिन्हित अधिकारों को जनता के मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत सम्मान पूर्ण जीवन जीने के अन्तर्गत चिन्हित किया है। साथ ही भारतीय संविधान जनता के मौलिक अधिकारों को सुनिश्चित करने की दिशा में देश के अन्दर ऐतिहासिक रूप से सामाजिक,आर्थिक,राजनैतिक अन्याय को सहने वाले समुदायों को समान भागीदारी, समान अवसर और सामाजिक,आर्थिक,राजनैतिक न्याय सुनिश्चित करने हेतु स्पष्ट उल्लेख किया है, इन तमाम मौलिक अधिकारों को सुनिश्चित करने हेतु लोकतांत्रिक परिधि में मुख्य रूप से विधायिका को जनता के अधिकारों को सुनिश्चित करने हेतु विधि व कानून बनाने की जिम्मेवारी है, कार्यपालिका को भारत के अंदर बने सभी कानूनों ,विधेयक सुनिश्चित करने की जिम्मेवारी है तथा जनता के मौलिक अधिकारों का हनन होने की स्थिति में न्यायपालिका को विधायिका के द्वारा बनाए गये वैसे विधि प्रावधानों को निरस्त करने का दायित्व है, जो जनता के मौलिक अधिकार का हनन करता हो साथ ही कार्यपालिका सख्त दिशा-निर्देश देने की जिम्मेवारी है, जहां जनता के मौलिक अधिकार हनन हो रहा है।
देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने एवं आवाम की सामाजिक-आर्थिक विषमता को दूर करने हेतु राष्ट्र के नीति निर्माताओं के विकास की अवधारणा-‘समावेशी विकास का न्याय के साथ विकास’ के केन्द्र में क्या वाकई वंचित व गरीब समुदाय है?
इस विचारानीय सवाल तथा असंगठित क्षेत्र के दायरे में विभिन्न प्रकार के जातीय, पारम्परिक एवं पेशागत आर्थिक क्रिया में संलग्न कामगारों की सामाजिक-आर्थिक समस्याओं तथा बुनियादी अधिकारों से जुड़े ज्वलंत सवालों को लेकर संगठन के द्वारा विभिन्न परामर्श सभाओं, जागरूकता अभियान ,शोध कार्य, लोकतांत्रिक संवाद ,मीडिया वार्ता आदि कार्यक्रमों का सफल आयोजन के आधार पर नागरिक मांगपत्र तैयार की गई है। इन तमाम कार्यक्रमों एवं गतिविधियों में विशेष रूप से केन्द्रीय ट्रेड यूनियन के वरिष्ठ प्रतिनिधियों,सरकारी पदाधिकारियों एवं संबंधित विभागों के माननीय मंत्रिगण,पत्रकार गण , शिक्षाविद, अन्य सामाजिक कार्यकर्ता ने भी समय दर समय विभिन्न आयोजनों में विभिन्न प्रकार की भूमिका निभाई। 
आलोक कुमार




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