Friday 27 September 2013

स्नेह-स्नेह ही मगर अब महाबोधि मंदिर से उत्पन्न दर्द से झटपटाने लगे लोग





आतंकवादियों की काली करतूत से बोधगया के लोगों की हरेक रात काली

बोधगया। स्नेह-स्नेह ही मगर अब बोधगया के लोग महाबोधि मंदिर से उत्पन्न दर्द से झटपटाने लगे हैं। महाबोधि मंदिर के आसपास सजाने वाले बड़े-छोटे-मझौले दुकानदारों के साथ पीपड़ पेड़ के पत्ते बेचने वाले बच्चे बेहाल हो गये हैं। जो बच्चे खुद ही स्कूलों की जरूरतों को पूरा कर लेते थे। आज मां-बाप पर आश्रित हो गए हैं। आखिर परिजन भी बच्चों की जरूरतों को किस तरह से पूर्ण करेंगे। संपूर्ण व्यवसाय ही ठप पड़ गया है।
अब मंदिर के आसपास विरान का साम्राज्य स्थापितः
तथाकथित आतंकवादियों के निशाने पर गये महाबोधि मंदिर के आसपास चहलपहल समाप्त हो गया है। जिस स्थान पर बड़े-छोटे-मझौले दुकान सजायी जाती थी। आज अवारा कुर्त्तो का जागीर बन गया है। मंदिर के परिसर को किलानुमा दीवार से घेर दिया गया है। अब प्रयास हो रहा है कि उस दीवार के बीच में दो जगहों पर गेट लगा दिया जा जाए। इस गेट पर द्वारपाल रखा जाएगा। नियमित समय पर गेट को खोला और बंद कर दिया जाएगा। इस दिशा में कार्य प्रगति पर है। बंद जुबान से कहते हैं कि आतंकवादियों की धमकी और उसकी आड़ में दबंग लोगों की चाल सफल हो गयी है।  वे नहीं चाहते थे कि मंदिर की कमाई से लोग मालामाल बन जाए।
कमल के फूल और पीपड़ का पत्ता बेचने वाले मुरझा गयेः
यहां पर रहने वाले कम पूंजी लगाकर अपने प्रयास से रकम कमा लेते थे। रूक का बत्ती बनाकर, पीपड़ का पत्ता बेचकर, कमल का फूल बेचकर, सिक्का संग्रह करके, विभिन्न प्रकार के फूलों को बिक्री करके अच्छीखासी रकम कमा लेते थे। बच्चे तड़के उठकर धंधा में लग जाते थे। स्कूल के समय होने पर धंधा को बंद करके स्कूल बैंग उठाकर स्कूल चले जाते थे। स्कूल से लौटने के बाद पुनः धंधा में जूट जाते थे। इस धंधे से उत्पन्न रकम को परिजन को देते और अपने स्कूली जरूरतों को पूर्ण कर लेते थे। अब बच्चों को मां-बाप पर आश्रित होना पड़ रहा है। अब तो कमल के फूल और पीपड़ का पत्ता बेचने वाले ही मुरझा गये हैं। 
कैसे मासूम बच्चे धंधा करते थे?
यहां के मासूम बच्चे दूर दराज क्षेत्र में जाकर पीपड़ पेड़ का पत्ता तोड़कर लाते थे। पत्ते को 14-15 दिनों तक पानी में भींगाते थे। पानी से निकालकर पत्ते को साफ पानी से धोकर भगवान दिवाकर के सामने रखकर सूखाया जाता था। उसके बाद गिनती से एक सौ पीपड़ का पत्तों का बंडल बनाया जाता था। उसके बाद देश-विदेश से पयर्टकों से बेचते थे। एक सौ रूपए में एक हजार पीपड़ का पत्ता बेचा जाता है। उसी तरह कीचड़ में निकले कमल का फूल को तोड़कर बच्चे लाते थे। उसे मनमौजी कीमत पर बेचते थे। कुछ तो सिक्का का ही धंधा किया करते थे। एक सौ रूपए नोट के बदले में 80 रूपए का सिक्का देते थे। इसी तरह का धंधा कम आय वाले बच्चे और अन्य किया करते थे। रूई का बत्ती भी बनाकर बेचते थे। यह सब धंधा बंद हो गया।
आलोक कुमार