जर्मनी के कसेल
शहर में स्थित
अर्न्तराष्ट्रीय सामाजिक संगठन ‘आदिवासी
कॉर्डिनेश’
द्वारा आदिवासियों के मुद्दों
पर जर्मनी की
राजधानी ‘बर्लिन’
में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय
सम्मेलन में एक
वक्ता के रूप
में शामिल होने
हेतु नेवता मिलते
ही मैं खुशी
से प्रफुल्लित हो
उठा था और
मैंने जर्मनी जाने
की तैयारी भी
शुरू कर दी।
लेकिन बहुत प्रयास
करने के बाद
विजा मिला और
इसी बीच मेरे
पास एशियाई देश
थाईलैंड से एक
और आमंत्रण-पत्र
आया। एक बार
में दो देशों
की यात्रा, 10 देशों
के सामाजिक कार्यकर्ताओं
से मिलने का
मौका और उनके
मुद्दे, अनुभव एवं चुनौतियों
के बारे में
जानने का अवसर!
यह मेरे लिए
तो जेठ महिने
की प्रचंड गर्मी
में पानी बरसने
जैसी ही बात
थी। लेकिन जैसे
ही यह बात
फैली, खुफिया विभाग
के लोग मेरे
पीछे पड़ गए
और सवालों की
झड़ी लगा दी।
कहॉं जा रहे
हो?, क्यों जा
रहे हो?, कब
लौटोंगे? इत्यादि, इत्यादि।
खैर, जो
भी हो, वह
दिन आया और
8 अक्टूबर, 2013 को सुबह
मैं दिल्ली के
लिए रवाना हुआ
क्योंकि शाम को
मेरी मुलाकात केन्द्रीय
ग्रामीण विकास मंत्री जयराम
रमेश से तय
थी। जब उन्हें
इस बात का
पता चला कि
मैं जर्मनी और
थाईलैंड की यात्रा
पर हूं, वे
थोड़े चकित जरूर
हुए। लेकिन उन्होंने
मेरे साथ कुछ
मुद्दों पर गंभीरता
से बात की।
इसी बीच मेरे
साथी एलिना होरो
और बिनीत मुंडू
दिल्ली पहुंचे। दिल्ली में
रात गुजरने के
हमलोग बाद 9 अगस्त
को सुबह 8 बजे
दिल्ली एयरपोर्ट पहुंचे। बोर्डिंग
पास लेते समय
हमारे साथ गहन
पूछताछ हुई। फिर
वही सवाल - आपलोग
जर्मनी क्यों जा रहे
हैं? सवालों का
बौझार इस बात
की ओर इशारा
करता है कि
आज पूरी दुनियां
ही सुरक्षा को
लेकर कितना भयभीत
है। अमेरिका और
भारत में आतंकवादी
हमले ने पूरी
दुनिया को ही
आतंकित कर दिया
है। और जब
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की विदेश
यात्रा की बात
हो तब तो
बात और ज्यादा
ही संवेदनशील बन
जाती है क्योंकि
एशियाई देशों में मानवाधिकार
कार्यकर्ताओं को राज्यसत्ता
हमेशा ही आतंकवादी,
नक्सली या माओवादियों
का सहपाठी मानता
है।
सुरक्षा जांच की
प्रक्रिया पूरी होने
के बाद हमलोग
हवाई जहाज में
बैठे और कुछ
ही देर के
बाद पायलट ने
टेक ऑफ किया।
अब जहाज हवा
से बातें करने
लगी और फ्लाईट
एटेंडेंट यात्रियों के सेवा
में लग गए।
खाने-पीने की
सम्पूर्ण व्यवस्था जो आम
तौर पर होती
है लेकिन यहां
पीने की खास
व्यवस्था भी थी
जो अन्तर्राष्ट्रीय उड़ानों
की खासियत भी
कही जा सकती
है। लेकिन मेरे
जैसे लोगों के
लिए तो ज्यादा
फायदेमंद नहीं होता
क्योंकि हम जूस
से आगे बढ़ने
की हिम्मत नहीं
दिखा सकते हैं।
सात घंटे की
हवाई सफर के
बाद हमलोग हेलसिंकी
पहुंचे। मौसम खराब
होने के कारण
धुंधला ही सही
लेकिन एयरपोर्ट के
उपर से हेलसिंकी
शहर रंग-बिरंगे
पेड़-पौधों के
साथ खुबसूरत दिखाई
पड़ी। मौसम काफी
खराब थी लेकिन
लैंडिग करने में
कोई परेशानी नहीं
जो पायलटों के
काबीलियत को दर्शाती
है। इसी बीच
मुझे अचानक एहसास
हुआ कि 7 घंटे
के हवाई सफर
के बाद हमलोग
विदेशी हो गए
क्योंकि हेलसिंकी एयरपोर्ट पर
सिर्फ गोरे लोग
की दिख रहे
थे। यह इसलिए
क्योंकि हमारे मन में
यह अवधारणा घर
कर गया है
कि जब भी
हमलोग गोरा लोगों
को देखते हैं
तो ऐसा लगता
है कि वे
ही विदेशी हैं
लेकिन वहां तो
सही मायने में
हम लोग विदेशी
हो गए थे।
फिनलैंड यूरोप महादेश
का 8वां सबसे
बड़ा देश है,
जिसकी जनसंख्या लगभग
54 लाख है, जो
झारखंड के तीन
जिलों की जनसंख्या
के बराबर है।
फिनलैंड की राजधानी
हेेलसिंकी यूरोप का एक
कनेकटिंग प्लेस है जहां
से आप यूरोप
का कोई भी
देश या दुनियां
के अन्य देशों
में जा सकते
हैं। यहां इकोलोजी
इकोनोमी का संगम
देखने को मिलता
है। एयरपोर्ट के
आसपास प्रकृति को
उतना ही नुकसान
पहुंचाया गया है
जितना जरूरत है।
चट्टान, पहाड़ और
जंगल सब दिखाई
पड़ते हैं। एशियाई
देशों में यह
नाजारा बहुत कम
देखने को मिलता
है। इसमें दोनों
फायदेमंद बातें हैं - एक
तो यह कि
विकास करते समय
परिस्थितिकी को बचाया
गया है और
दूसरा पैसे की
भी बचत हुई
जो इन बड़े-बड़े जीवित
चट्टानों को तोड़कर
हटाने में खर्च
होती।
यहां वर्क
कल्चर जबर्दस्त दिखाई
पड़ता है। एक
फ्लाईट लगभग 150 यात्री और
सिर्फ दो एटेंडेंट।
इसी तरह एयरपोर्ट
में एक व्यक्ति
ड्राईविंग करते हुए
समान भी लाता
है और पूरा
समान खाली करने
के बाद चला
जाता है। उसे
सहायता की भी
जरूरत नहीं होती।
वह यह नहीं
कहता कि मैं
ड्राईवर हूं तो
सिर्फ गाड़ी ही
चलाऊंगा। लोग अपने
को पूरी तरह
से पारंगत बनाकर
रखते हैं इसलिए
समय से अपना
पूरा काम निपटने
में सक्षम होते
हैं। हेलसिंकी में
कुछ समय गुजरने
के बाद हमलोग
बर्लिन के लिए
रवाना हुए। एयरपोर्ट
में सम्पूर्ण जांच
होने के बाद
आगे की जिम्मेदारी
खुद की होती
है। बोर्डिंग समय
सिर्फ एक एयर
हॉस्टेज ने बोडिंग
पास की जांच
की और ड्राईवर
बस लेकर फ्लाईट
तक पहुंचा दिया,
बाकी जिम्मा खुद
का था।
हम लोग
दो घंटे की
हवाई सफर के
बाद बर्लिन शहर
पहुंचे। मौसम साफ
था इसलिए लैंडिग
के समय फिर
से खूबसूरत नजारा
देखने को मिला।
ऐसा लगता है
कि पूरा बर्लिन
शहर और छोटा-छोटा कस्बा
योजनाबद्ध तरीके से बसाया
गया है। सबकुछ
सुसज्जित दिखता है। बर्लिन
एयरपोर्ट के आसपास
तो खूबसूरत बंगले
हैं ही लेकिन
उतना ही खुबसूरत
पेड़-पौधे भी
दिखाई पड़ते हैं,
मानो जंगल के
बीच खुबसूरत शहर
बसाया गया हो
! प्रकृति के साथ
जीने का इसे
ज्यादा आनंद और
कहां मिल सकता
है? मैंने बचपन
से ही बर्लिन
शहर का नाम
सुना था। बल्कि
यूं कह सकता
हूं कि अपनी
रांची से भी
पहले मुझे बर्लिन
शहर के बारे
में बताया गया
था। यह इसलिए
क्योंकि 1845 में 4 ईसाई मिशनरी
बर्लिन शहर स्थित
गोस्सनर मिशन से
धर्म प्रचार के
सिलसिले में छोटानागपुर
पहुंचे थे और
हमारे गांव के
संडेस्कूल में हमलोग
इसे गाना के
रूप में गाते
थे।
एयरपोर्ट में समान
लेते समय हमलोग
हिन्दी में बात
कर रहे थे।
इसी बीच एक
सज्जन ने मेरे
पास आकर पूछा
कि ‘‘क्या आपलोग
इंडिया से हैं?’’
वह पहली बार
बर्लिन शहर पहुंचा
था इसलिए उसका
दिमाग भी अशांकाओं
से भरा पड़ा
था। उसने पूछा,
टैक्सी कहां मिलेगी?
कोई मुझे ठगेगा
तो नहीं ना ?
चूंकि विनीत पहले
कई बार बर्लिन
का दौरा कर
चुके थे इसलिए
उन्होंने उस सज्जन
को आश्वस्त करते
हुए कहा कि
यहां ऐसा नहीं
होता है इसलिए
आप आराम से
चले जाईये। वह
सज्जन चला गया।
हमलोग भी समान
लेकर एयरपोर्ट से
बाहर निकले। सामने
टैक्सी खड़ी थी।
लगभग हरेक मिनट
में एक टैक्सी
आती थी। लोग
बिना पूछे उसपर
अपना समान रखकर
सवार हो जाते
थे। जब हमारी
बारी आयी तो
हमलोग भी अपना
समान लेकर टैक्सी
में बैठ गए।
उसके बाद हमने
ड्राईवर को होटल
का पता बताया
और वे चलते
बने। लगभग बर्लिन
शहर का आधा
हिस्सा घुमते हुए हमलोग
होटल पहुंचे जो
जर्मन पार्लियामेंट के
पास स्थिति था।
बर्लिन शहर में
क्या खुबसूरत नाजारा
दिखाई पड़ता है!
इससे भी बड़ा
चीज, एक भी
टैªफिक पुलिस
सड़क पर नहीं
दिखती लेकिन कहीं
भी कोई गड़बड़ी
नहीं। ऐसा लगता
है मानो सभी
लोग कानून-व्यवस्था
को लागू करने
में लगे हुए
हैं। सड़क पर
पैदल, साईकिल और
चारपहिया वाहन सभी
के लिए अलग-अलग लेन
और सिग्नल बनाया
गया है। मजाल
है कि कोई
पैदल चलने वाला
व्यक्ति भी सिग्नल
का उल्लंघन करे!
यहां जबर्रदस्त सिविक
सेंस और कानून
पालन करना हर
कोई अपना जवाबदेही
समझता है। और
विकसित देश और
अविकसित देशों के बीच
का फर्क इसी
में है। बर्लिन
शहर में बिजली
अंडरग्राउंड है और
सड़कों के बारे
में तो क्या
कहना। कभी मन
में सवाल उठता
है कि हमारी
सरकार क्यों आजादी
के 65 वर्ष के
बाद भी राज्यों
के राजधानी और
जिला मुख्यालयों में
अच्छी सड़क नहीं
दे पाती है?
क्यों राजनेता, नौकरशाह,
ठेकेदार और बिचौलिये
अपने देश का
खजाना लूटने में
लगे हुए रहते
हैं? क्यों विधि-व्यवस्था हम ठीक
नहीं कर सकते?
सिविक सेंस का
क्यों विकास नहीं
हो पा रहा
है? विकसित देशों
का सैर करने
वाले राजनेता, नौकरशाह
और आम नागरिक
उनसे क्यों कुछ
नहीं सीख पाते
हैं? ये सिर्फ
औद्योगिक विकास को ही
विकास मान लेते
हैं। फलस्वरूप, समस्याएं
बढ़ती ही जा
रही है। विकास
की मूलभूत जरूरत
पर अबतक अच्छा
काम नहीं हुआ।
बर्लिन शहर में
लोग अपना काम
जुनून के साथ
करते दिखाई पड़ते
हैं। दफ्तर का
काम, खाना, पीना,
फिल्म देखना या
कोई और सभी
चीज जुनून के
साथ इसीलिए वे
सफल भी होते
हैं। सिनेमा हॉल
के सामने युवक-युवतियां एक साथ
सिगरेट का धुंआ
उड़ाते और रेस्टोरेंट
में जाम छलकाते
दिखे। हम खासकर
दक्षिण एशिया के लोग
समानता के नाम
पर इस तरह
की बुरी चीजों
को तो बहुत
जल्द अपना लेते
हैं लेकिन उनसे
अच्छी चीजें - वर्क
कल्चर, सिविक सेंस, नियम-कानून का पालन
करना इत्यादि नहीं
सीखते हैं। यूरोप
में ड्राईविंग सीट बांयी
ओर होती हैं
और लोग सड़क
के दाहिनी ओर
चलते हैं इसीलिए
संभवतः सभी चीजें
यहां राईट-राईट
(सही से) हैं!
बर्लिन की सड़कों
पर लोग औसतन
100 किलो प्रति घंटा की
रफ्तार से गाड़ियां
दौड़ाते हैं और
शहर से बाहर
तो औसत 150 किलो
मीटर प्रतिघंटा आम
लोग चलाते हैं,
प्रोफेसनल ड्राईवर की तो
बात न ही
की जाये ता
अच्छा है। जर्मनी
के चारो ओर
रंग-बिरंग पेड़-पौधों से सुसज्जित
खुबसूरत जंगल दिखाई
पड़ता है, जो
देश का लगभग
33 प्रतिशत क्षेत्रफल में है।
यह जंगल पूर्णरूप
से उगाया हुआ
जंगल है, जिसे
आप समझ सकते
हैं कि यहां
की सरकार और
लोगों ने कितनी
मेहनत की होगी।
हमारे देश में
तो सरकार क्या
जंगल लगायेगी? वन
विभाग के लोग
पेड़ काटकर पैसा
कमा रहे हैं
और पेड़ लगाने
के नाम पर
भी सरकारी खजाना
लूट रहे हैं।
बर्लिन शहर में
जहां जर्मन पर्लियामेंट
और जर्मन चॉसलर
अंजेला मर्केल का आवास
शासन के ताकत
का एहसास कराते
हैं तो वहीं
‘विक्ट्री कॉलम’, ‘बैंडनबर्ग
गेट’
और ‘बर्लिन वॉल’
मुक्ति के प्रतिक
बने हैं। 9 नवंबर,
1989 को बर्लिन वॉल को
तोड़ दिया गया
था, जिससे पूर्वी
और पश्चिमी जर्मनी
के बीच जो
विभाजन था वह
मिट गया। आज
भी बर्लिन वॉल
में क्रांतिकारी पेंटिग
और नारा दिखते
हैं जैसे-‘डंस
टू फ्रीडम’ (स्वतंत्रता
के लिए नृत्य),
‘से येस टू
फ्रीडम, पीस, डिगनिटी
एंड रिस्पेक्ट फॉर
ऑल’
(सभी के लिए
आदर, आत्म-सम्मान,
शांति और स्वतंत्रता
को हां कहो)
और ‘से नो
टू टेरर एंड
रिपरेशन टूवर्ड ऑल लिविंग
बिंगस’
(सभी जीवित प्राणियों
के खिलाफ आतंक
और दमन को
न कहो)।
जर्मनी में लोगों
के लिए स्वतंत्रता
सर्वोपरि है, जिसके
लिए कई आंदोलन
हुए हैं, जो
आज भी युवाओं
को उद्देलित करते
हैं। लेकिन वहीं
‘नाजी होलोकॉस्ट मोन्यूमेंटल’
(नाजी पूर्णाहुति स्मारक)
पहुंचते ही मन
शांत हो जाता
है। एक नजर
में ही हजारों
की संख्या में
कब्र के शक्ल
में स्मारक दिखाई
पड़ते हैं, जो
हिटलर के शासनकाल
में जर्मनी में
हुए नरसंहार की
याद दिलाते हैं।
जर्मन लोग इसे
अति पवित्र जगह
मानते हैं।
बर्लिन शहर में
घुमने के बाद
अब आदिवासियों के
अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग
लेने की बारी
थी। इस सम्मेलन
में हमारे देश
के आदिवासियों के
मुद्दे, अनुभव और चुनौतियों
को साझा करने
के बाद जर्मनी
और ब्राजील से
आये लोगों का
अनुभव सुनने को
मिला। जर्मनी के
आदिवासियों की स्थिति
दुःख है, वहां
तो कई आदिवासी
समुदाय को सरकार
ने आदिवासी का
दर्जा ही नहीं
दिया है लेकिन
उनके पूर्वजों की
जमीन विकास के
नाम पर छिन
ली है। वहीं
ब्राजील से उम्मीद
जागी, जहां सरकार
के सहयोग से
‘मार्केट इकॉनोमी’
(बाजारू अर्थव्यवस्था) को ‘सोलिडारिटी
इकॉनोमी’
(भाईचारा अर्थव्यवस्था) से बड़ी
चुनौती दी जा
रही है। इस
सम्मेलन में आदिवासियों
की सामाजिक, आर्थिक,
संस्कृतिक, पारंपरिक शासन व्यवस्था,
न्याय व्यवस्था और
महिल-पुरूष समानता
यानी आदिवासी दर्शन
पर गंभीर रूप
से चर्चा हुई।
जर्मनी के अधिकांश
साथियों ने आदिवासी
दर्शन को आगे
बढ़ाने पर जोर
देते हुए तथाकथित
विकसित व मुख्यधारा
के लोगों से
भी आग्रह किया
कि अगर दुनियां
और मानवसभ्यता को
बचाना है तो
हमें भी आदिवासियों
की तरह ‘लालच’
को त्यागकर प्राकृतिक
संसाधनों का बेहिसाब
दोहन छोड़कर प्रकृति
के साथ जीना
पड़ेगा। सम्मेलन में भाग
लेने के बाद
हमलोग पूर्वी जर्मनी
स्थित ‘ब्रैडेनबर्ग’
नामक राज्य का
दौरा किया, जो
पॉलैंड देश की
सीमा से सटा
हुआ है। यह
क्षेत्र नाजीवाद के लिए
जाना जाता है।
यहीं से हिटलर
की सेना ने
पॉलैंड पर चढ़ाई
कर उसपर कब्जा
जमाया था, जिससे
दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ी।
इस क्षेत्र में
भारी संख्या में
लोगों को मौत
के घाट उतार
दिया गया था।
हमारे मित्र थेऑदोर
ने बताया कि
पूर्वी जर्मनी में नाजीवाद
का प्रभाव बरकरा
है। उन्होंने कहा
कि आज भी
पूर्वी जर्मनी में कुछ
लोग ऐसे हैं,
जो आपको देखते
ही आप पर
टूट पड़ेंगे। हमने
ब्रैडेनबर्ग राज्य के स्पोसनीज
जिला स्थित लकमा
गांव का दौरा
किया, जहां ‘सोर्ब्ज’
नामक आदिवासी समुदाय
को कोयला उत्खनन
और पावर प्लांट
लगाने वाली कनाडा
की कंपनी ‘वटेनफॉल’
ने ऑक्टूबर, 2007 में
अपने पूर्वजों की
जमीन से विस्थापित
कर दिया। हालांकि
उन्हें मुआवजा देकर दूसरे
जगहों पर बसाया
गया है। लेकिन
सोर्ब्ज लोग इसे
खुश नहीं हैं
क्योंकि उन्हें लगता है
कि जर्मन सरकार
ने दूसरे देशों
में बिजली बेचने
के लिए उनकी
विरासत को लूटकर
कनाडा की कंपनी
वटेनफॉल के हवाले
कर दिया।
जर्मनी की यात्रा
पूरी करने के
बाद 14 अक्टूबर, 2013 को सुबह
10 बजे मैंने थाईलैंड की
यात्रा शुरू की।
यहां से आगे
मुझे अकेले ही
जाना पड़ा क्योंकि
बिनीत और एलिना
जर्मनी तक ही
मेरे साथ थे।
बर्लिन शहर से
हेलसिंकी और वहां
से थाईलैंड की
राजधानी बैंकॉक की यात्रा
सिर्फ अकेले। यूरोप
में थोड़ी-थोड़ी
दूरी पर समय
का काफी अंतर
होता है। बर्लिन
से हेलसिंकी की
यात्रा दो घंटे
में पूरी होती
हैं लेकिन यहां
समय में एक
घंटे का फर्क
होता है। जैसे
दो बजे बर्लिन
से चलने पर
तीन बजे हेलसिंकी
पहुंचेंगे, जबकि चार
बजे पहुंचना चाहिए।
इसी तरह थाईलैंड
और जर्मनी के
बीच 4 घंटे का
अंतर है। मेरी
यात्रा हेलसिंकी से शांम
5:10 बजे शुरू
हुई और मैं
अगले सुबह 7:15
बजे बैंकॉक पहुंच।
10 घंटे की लंबी
हवाई यात्रा के
बाद एशियाई
देश पहुंचने का एहसास
हुआ क्योंकि बैंकॉक
एयरपोर्ट पर भारी
संख्या में भारतीय
यात्री मौजूद थे। साथ
ही ‘थाई बट’
(थाईलैंड का पैसा)
खरीदते और ‘अराईवल
वीजा’
बनवाते समय ज्यादा
पैसा देना पड़ा
और उसकी कोई
पर्ची नहीं मिली।
यह एक नामूना
भर था जो
इस बात का
गवाह बना कि
कैसे एशियाई देशों
में भ्रष्टाचार रास्ता
चलते दिखाई पड़ता
है। यूरोप में
भी भ्रष्टाचार हैं
लेकिन दिखाई नहीं
पड़ता है। ऐशियाई
देशों का भ्रमण
करते समय एैसा
एहसास होता है
कि लोग पैसा
लूटने के लिए
ही आस-पास
मंडराते रहते हैं।
थाईलैंड की राजधानी
बैकॉक से कौन
परिचित नहीं है
कि यह कितना
खुबसूरत जगह है,
जिसका एहसास एयरपोर्ट
से ही होता
है। बैंकॉक से
चियंग माई के
लिए मैरी फ्लाईट
शाम को 5 बजे
थी लेकिन थाई
एयरवेज के कर्मचारियों
ने मुझे सुबह
10 बजे की फ्लाईट
में ही भेज
दिया, जिससे मुझे
होटल में भरपुर
आराम करने का
मौका मिला। थाईलैंड
संवैधानिक रूप से
राजशाही देश है।
राजा के खिलाफ
सही बातें बोलने
और लिखने के
लिए भी परमिशन
की जरूरत होती
है तो आप
समझ ही सकते
हैं कि उनके
खिलाफ लिखने वालों
की क्या स्थिति
हो सकती है?
एक हमारे मित्र
ने कहा कि
मैं राजा को
छोड़कर सभी प्रश्नों
का जवाब दूंगा।
राजा पर लिखी
गई पुस्तको पर
प्रतिबंध लगाया गया है।
यहां जरूर लोकतंत्र
पर प्रतिबंध का
एहसाह होता हैं
लेकिन जब हम
दुनियां का सबसे
बड़ा लोकतंत्र - भारत
(जहां अभिव्यक्ति की
आजादी के नाम
पर राजनेता प्रतिदिन
एकदूसरे को गाली
देते रहते हैं)
से थाईलैंड की
तुलना करते हैं
तो हमारा देश
प्रतिस्पर्धा में कहीं
टक्कर देता नहीं
दिखाई पड़ता है।
थाईलैंड का घरेलू
सकल उत्पाद 6.5 प्रतिशत
जो हमारे देश
के बराबरा है
और विकास और
सिविक सेंस की बात
ही छोड़ दीजिए।
यातायात सुविधा, सड़क, बिजली,
पानी, स्वास्थ्य और
शिक्षा सब कुछ
दुरूस्त। मैंने 6 दिनों में
एक भी बार
गाड़ी का हॉर्न
नहीं सुना, जिसे
आम समझ सकते
हैं कि कितना
सबकुछ सुचारू रूप
से चलता है।
लेकिन सही मायने
में अन्य एशियाई
देशों की तरह
ही थाईलैंड भी
विरोधाभासों से भरा
पड़ा है। थाईलैंड
की जनसंख्या लगभग
6 करोड़ 4 लाख है,
जिसमें से 75 प्रतिशत लोग
‘थाई’
समुदाय से आते
हैं। यहां 95 प्रतिशत
लोग बौद्ध धर्म
के अनुयायी है
लेकिन देश के
लगभग सभी होटलों
में बीफ, पोर्क
और अन्य तरह
के मांसाहारी व्यंजन नास्ते से
लेकर रात के
खाने में परोसा
जाता है। आप
यह भी कह
सकते हैं कि
वहां खाने-पीने
से धर्म का
कोई सरोकार नहीं
दिखता है, जो
सही में स्वागत
योग्य है। लेकिन
दक्षिण एशिया में तो
धर्म और खाना
का बहुत ज्यादा
जुड़ाव है जो
कभी-कभी धर्म
आधारित विवाद पैदा करता
है। दूसरा द्ंद
यह है कि
शहर के लगभग
सभी दुकानों -फूटपथ
से लेकर शॉपिंग
मॉल तक लड़कियां ही समान
बेचती मिलेंगी। बाहर
से देखने में
यह महिला सशक्तिकरण
का जबरदस्त नमूना
हो सकता है
लेकिन हकीकत में
ऐसा नहीं है।
यघपि थाईलैंड में
देह व्यापार गैर-कानूनी है, लेकिन
यह सरकार के
सहयोग से ही
एक उघौग का रूप
ले चुका है,
जिसे थाईलैंड की
सरकार को बहुत
ज्यादा पैसा मिलता
है। यहां देहव्यापार
के कुछ चर्चित
जगह हैं जैसे
बैंकांक का पैंटपोंग,
नाना प्लाजा, साई
कोबेय, पटाया और फूकेट
इत्यादि। रास्ता चलते आपको
मशाज पॉलर्र दिखेगा,
जहां सिर्फ लड़कियां
या महिलाएं पुरूषों
का मशाज करते
दिखाई पड़ेंगी। यह
सोचकर बुरा जरूर
लगता है कि
थाईलैंड की सरकार
और वहां के
लोग कैसे अपनी
बहन-बेटियो का
शरीर बेचकर अपना
और राज्य का
खाजाना भर रहे
हैं। हकीकत में
यही आज का
पूंजीवादी आर्थिक विकास है,
जहां आप अपना
आय बढ़ाने के
लिए कुछ भी
करने का मजबूर
होते हैं।
आंकड़ों की बात
की जाये तो
थाईलैंड में 28 लाख 20 हजार
लोग सेक्स इंडस्ट्री
में कार्यरत हैं,
जिसमें 20 लाख महिलाएं,
20, हजार पुरूष एवं 18 वर्ष
से कम उम्र
की 8 लाख लड़कियां
शामिल हैं, जिससे
कोई भी सहज
ही अंदाजा लगा
सकता है कि
यह इंडस्ट्री कितना
बड़ा है। यहां
से प्रतिवर्ष 4.3 बिलियन
अमेरिका डॉलर की
आमदनी होती है,
जो थाईलैंड के
अर्थव्यवस्था का 3 प्रतिशत
है। थाईलैंड के
लिए देहव्यापार कोई
नयी बात नहीं
है। यह सदियों
से एक परंपरा
की तरह चली
आ रही है।यघपि
1960 में संयुक्त राष्ट्र के
दबाव में सरकार
ने कानून बनाकर
इसे गैर-कानूनी
घोषित किया लेकिन
उसे कोई फर्क
नहीं पड़ा इसलिए
पुनः 2003 में सरकार
ने देहव्यापार को
कानूनी जामा पहनाने
की कोशिश की
जो नहीं हो
सका लेकिन असली
में देहव्यापर थाईलैंड
की हकीकत है
और इसी लिए
दुनियां के कई
हिस्सों से लोग
बैंकांक जाते हैं।
थाईलैंड को जानने
समझने के क्रम
में ही भारत
सहित एशिया के
9 देशों के आदिवासी
युवक-युवतियां अपने
समाज के मुद्दों,
अनुभवों और चुनौतियों
पर विचार-विमर्श
करने के लिए
चियंगमई में 4 दिनों तक
मशकत की। मानव
अधिकार पर आयोजित
इस सम्मेलन में
यह निकल कर
सामने आया कि
एशियाई देशों में आदिवासियों
के मुद्दे, अनुभव
और चुनौतियां एक
ही तरह के
हैं। इन देशों
की सरकारें ‘आर्थिक
विकास’
के नाम पर
आदिवासियों को उनकी
भूमि, भू-भाग
और संसाधनों से
बेदखल कर रहे
हैं, उनके खिलाफ
सैन्य ऑपरेशन चला
रहे हैं और
आंदोलनकारियों के उपर
दमन कर रहे
हैं। लेकिन आदिवासियों
की दर्दभरी हकीकत
से रू-ब-रू होने
के बाद उम्मीद
भी जागी क्योंकि
जो आदिवासी लोग
इस सम्मेलन में
शरीक थे उनके
से अधिकांश युवा
थे, जो विश्व
की भाषा –अंग्रेजी,
आधुनिक तकनिकी और अपनी
सभ्या तो बचाने
के लिए दृढ़संकल्पित
दिखे। उन्होंने अंतिम
दिन ‘चियंगमई’ घोषणा-पत्र जारी
करते हुए सपथ
भी लिया कि
वे आदिवासियों की
भूमि, भू-भाग,
संसाधन, भाषा, संस्कृति और
अस्तित्व को बरकरार
रखने के लिए
अपने पूर्वजों की
तरह मरते दम
तक संघर्ष करेंगे।
विदेश यात्रा पूरी
करने के बाद
मैं 21 अक्टूबर को अपना
देश वापस लौट
आया। चूंकि मेरे
मन में भी
जर्मनी, फिनलैंड और थाईलैंड
की तस्वीर थी
इसलिए कोलकोता और
रांची के एयरपोर्ट
पर मेरे कदम
पड़ते ही अन्य
लोगों की तरह
मैं भी अपने
देश की व्यवस्था
को कोसना शुरू
कर दिया कि
एयरपोर्ट पर बस
सुविधा ठीक नहीं
है, देश की
सड़के ठीक नहीं
हैं, लोग बेईमान
है, इत्यादि, इत्यादि
तभी इस बात
का अचानक एहसाह
हुआ कि अपना
तो अपना ही
है। सिर्फ कुछ
बेईमान राजनेताओं, नौकरशाहों, ठेकेदारों,
बिचौलियों और आम
आदमी की वजह
से अपना ही
देश बुरा कैसा
हो सकता है?
इसलिए क्यों न
अपने राज्य और
देश को सुन्दर
बनाने का प्रयास
किया जाये। लेकिन
घर पहुंचने पर
पता चला कि
भारत सरकार को
मेरे विदेश जाने
पर अपति है।
उन्होंने मुझे कारण
बताओ नोटस जारी
कर दिया था।
इसलिए मैं इन
प्रश्नों का जवाब
ढ़ूढ़ रहा हूं
कि कैसे कहूं
कि यह मेरा
देश है? क्या
यह देश सिर्फ
राजनेता, नौकरशाह और ताकवर
लोगों का है?
क्या हम आम
नागरिक वोट देने
के बाद सिर्फ
प्रताड़ित होने के
लिए ही है?
और लोकतंत्र में
हम कहां है?
- ग्लैडसन डुंगडुंग
मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं।