Friday, 29 November 2013

झारखंड में कुपोषण की स्थिति

  


स्वस्थ रहना हर व्यक्ति का संवैधानिक अधिकार हैं। स्वस्थ व्यक्ति से ही राज्य देश की नीति अवनीति र्निधारित होती है। जो देश के विकास में अपना सम्पूर्ण योगदान देता है। पर आलम यह है कि अपने आप को स्वच्छ और स्वस्थ कहलाने वाला झारखंड राज्य हर रूप से अस्वस्थकर है। चाहे विकास से यह शारिरिक स्वस्थ से। प्रत्येक वर्ष सरकार स्वास्थ्य सेवा पर करोड़ों रूपया खर्च करती है पर ये खर्च सिर्फ कागजों पर ही सिमट कर रह जाता है। धरातल पर ये टॉय-टॉय फिश है।
अभी हाल ही में बाल अधिकारों के संरक्षण के लिए गठित ‘राष्ट्रीय आयोग एनसीपीसीआर ने राज्य और जिला स्तरीय सरकारी अधिकारियों एंव सुस्त पर्यवेक्षी प्रणलियों तथा सूचना प्रणालियों को दोषी ठहराया है। जिसमें एनसीपीसीआर ने सरकारी अधिकारियों को ज्यादा दोषी है क्योंकि ये सब न समय से रिपोर्ट देते है न अपने जिम्मेवारी के प्रति ईमानदार है, जिसके कारण  झारखंड के  खुंटी और चाईबासा जिलें में बच्चों की मौत कुपोषण से हुई थी। इसकी पुष्टि ‘बाल अधिकार पर्यवेक्षी दल ने सितंबर 19 तथा 21, 2013 को की थी। खुंटी में बच्चें की मौत का कारण सरकारी सेवा नगण्य, गरीबी और न ही आंगनबाड़ी में बच्चें का नाम दर्ज होना बताया गया था। जबकि इस बच्चे का घर आंगनबाड़ी से महज कुछ दूरी पर ही थी।

दूसरी ओर प्रतिवेदन में दल ने कुपोषण से हुई मौत का करण पता लगाने के लिए चाईबासा का दौरा किया जिसमें पाया गया कि वहॉ के अधिकतर गॉवों में बच्चें औसत से अधिक कुपोषण है और जिस बच्चें की मौत कुपोषण से हुई है। उसकी स्थिति बहुत ही दयनीय थी। जब आंगनबाड़ी का दौरा किया गया तो पता चला कि आंगनबाड़ी सेविका की मौत 4 साल पहले हो गई है। जिसके कारण सेन्टर बंद पड़ा हुआ है और ये सेन्टर को कहीं स्थापित भी नहीं किया गया है। जबकि आंगनबाड़ी सेन्टर में कुपोषित बच्चें के लिए अलग से आहार की व्यवस्था है।

झारखंड में करीब 40 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे है। यहॉ प्रजननशील महिलाओं के लगभग दो तिहाई बच्चें एनीमिया के शिकार होते है। इसी तरह 20 प्रतिशत बच्चें घवसन संक्रमण रोग से पीड़ित है। यहॉ एनीमिया की स्थिति भयावह है। राज्य में पांच वर्ष से कम आयु के 56.5 प्रतिशत बच्चे अल्प वजन हैं और 70.3 फीसदी खून की कमी के शिकार हैं। इसी तरह किशोरी बालिकाओं में 78.2 फीसदी एनीमिया ग्रसित हैं। इनमें से 64.2 प्रतिशत युवतियां विद्यालयों में पढ़नेवाली हैं। इसी तरह से 70 प्रतिशत महिलाएं खून की कमी के शिकार हैं। आदिवासी समुदाय की स्थिति तो और भी बदतर है। इस समुदाय के पांच वर्ष से कम आयु के 64.3 प्रतिशत बच्चे अल्प वजन के शिकार हैं एवं 80 प्रतिशत बच्चे खून की कमी से जूझ रहे हैं एवं 85 प्रतिशत महिलाएं खून की कमी के शिकार हैं। राज्य में कुपोषण के रोकथाम हेतु कई कार्यक्रम चलाये जा रहे है तथा राज्य में 69 कुपोषण उपचार केन्द्र एवं 10 कुपोषण उपचार विस्तार केन्द्र कार्यरत हैं बावजूद इसके कुपोषण एवं एनीमिया में कमी नहीं आ रही है।

  सरकार को ये बाध्य है कि प्रत्येक जिला में दो ‘कुपोषण स्वास्थ्य केन्द्र होना अनिवार्य है। तथा प्रत्येक केन्द्र में 10 बिस्तर की व्यवस्था, रसोई, शौचालय तथा 1 चिकित्सक 4 सहायक नर्स और दाई की व्यवस्था अनिवार्य है लेकिन पूरे झारखंड में मात्र 79 ही कुपोषण उपचार केंन्द्र है। और इन स्वास्थ्य केन्द्रों की स्थिति बहुत ही दयनीय है। हाल ही में राज्य बाल आयोग के सदस्य लक्ष्मी मुड़ा द्वारा चान्हो ब्लॉक के कुपोषण स्वास्थ्य केन्द्र का भ्रमण करने के दौरान पाया गया कि 10 बेड वाला केन्द्र में 14 से 16 कुपोषित बच्चें लेटे हुए थे तथा इसके अभिभावक बरामदा में बैठे हुए थे। चिकित्सक का कोई खबर नहीं था न ही दवाइयों की उतम व्यवस्था थी।

राज्य के मुख्यमंत्री ने ‘बाल अधिकार पैनल की सुनवाई में होने वाले धनबाद, बोकारों और पूर्व-पश्चिम सिंहभूम की शिकायतों को मद्दे नजर रखते हुए प्रथम चरण की मिटिंग में ये सख्त घोषणा की कि नर्सिग स्टाफ एंव आंगनबाड़ी सेविकाओं द्वारा कामगारों और माता-पिता के बच्चों की आयु लम्बाई और वजन कम रोगियों का पता लगाने एंव कुपोषण का मुख्य कारण पर जोर दिया जायेगा।

इसी तरह एनसीपीआर की सदस्य डॉ वंदना द्वारा परीक्षण करने पर पाया गया कि जिन बच्चों में खून की कमी है उन बच्चों के लिए आंगनबाड़ी में फोलिक एसिड देना स्वीकार्य नहीं है और जो किशोरियां है उसके लिए फोलिक एसिड था ही नहीं। अधिकतर आंगनवाड़ी में कुपोषित बच्चों का न अनुबंध था समेकित बाल विकास  सेवा, विकास के नाम पर पूरी तरह से शून्य था और न ही इन बच्चों पर संवेदनशील तरीकों से काम किया गया और न ही सन्तोष जनक रिर्पोट पाया गया।
अगर झारखंड में सामान्य स्वास्थ्य आधारभूत संरचना देखा जाये तो ये रक्तचाप बढ़ाने वाली साबित होगी। क्योंकि राज्य में 6708 प्राथमिक उप-स्वस्थ्य केन्द्रों के जगह पर सिर्फ 3947 सेंटर ही उपलब्ध हैं, जिसमें वे भी सुचारू रूप से नहीं चलती हैं। इसी तरह यहां 1005 प्राथमिक स्वस्थ्य केन्द्रों की अवश्यकता है, जिसके जगह में मात्र 321 ही उपलब्ध हैं। राज्य में 380 सामुदायिक स्वस्थ्य केन्द्रों के स्थान पर 194 उपलब्ध हैं। 24 जिला अस्पाताल के जगह पर मात्र 21 उपलब्ध हैं। नर्सिंग कॉलेज 3 की जगह पर 1 उपलब्ध है। ए.एन.एम. ट्रेनिंग सेंटर 20 के जगह पर 10 उपलब्ध हैं एवं 6 मेडिकल कॉलेजों की जगह पर मात्र 3 मेडिकल कॉलेज उपलब्ध है।

पिछले 13 वर्षों में झारखंड के स्वास्थ्य विभाग को संभालने के लिए 6 मंत्री एवं 13 स्वास्थ्य सचिवों ने संभाला लेकिन इसमें कोई खास बदलाव नहीं आया। बदले में एक के बाद एक घोटाला सामने आता रहा, जिसमें मंत्री के साथ नौकरशाह भी जेल में बंद हैं। झारखंड में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत 1000 करोड़ रूपये खर्च किये गये लेकिन धरातल के कुछ सुधार दिखाई नहीं देता है। स्वास्थ्य विभाग की स्थिति बिल्कुल अपाहिज की तरह हो गई है, बस इसे एक बैशाखी की जरूरत है।

बरखा लकड़ा
स्वतंत्र पत्रकार