पहले चमत्कार के मुताबिक, मदर ने मोनिका बेसरा नाम की बंगाली ट्राइबल महिला को पेट के ट्यूमर से
मुक्ति दिलाई थी
दूसरा चमत्कार ब्रेन ट्यूमर से पीड़ित ब्राजील
के एक व्यक्ति के इलाज से जुड़ा हुआ है
वेटिकन सिटी।ईसाई समुदाय को एक और ‘संत’ मिलने वाला है। उस ‘संत’ का नाम हैं ‘धन्य’ घोषित मदर टेरसा (अग्नेसे गोंकशे बोजशियु)। 26 अगस्त
1910 में
मदर
टेरेसा
का
जन्म
हुआ।
एक
अल्बेनीयाई
परिवार
में
उस्कुब, ओटोमन साम्राज्य (आज का सोप्जे,मेसेडोनिया गणराज्य) में हुआ था। मदर टेरेसा रोमन कैथोलिक नन थीं, जिनके पास भारतीय नागरिकता थी। उन्होंने 1950 में
कोलकाता
में
मिशनरीज़
ऑफ
चेरिटी
की
स्थापना
की।
45 सालों
तक
गरीब, बीमार, अनाथ और मरते हुए इन्होंने लोगों की मदद की और साथ ही चेरिटी के मिशनरीज के प्रसार का भी मार्ग प्रशस्त किया।
1970 तक वे ग़रीबों और असहायों के लिए अपने मानवीय कार्यों के लिए प्रसिद्ध हो गयीं, माल्कोम मुगेरिज के कई वृत्तचित्र और पुस्तक जैसे समथिंग ब्यूटीफुल फॉर गोड में इसका उल्लेख किया गया। उन्होंने 1979 में
नोबेल
शांति
पुरस्कार
और
1980 में
भारत
का
सर्वोच्च
नागरिक
सम्मान
भारत
रत्न
प्रदान
किया
गया।
मदर
टेरेसा
के
जीवनकाल
में
मिशनरीज़
ऑफ चैरिटी का
कार्य
लगातार
विस्तृत
होता
रहा
और
उनकी
मृत्यु
के
समय
तक
यह
123 देशों
में
610 मिशन
नियंत्रित
कर
रही
थी।
इसमें
एचआईवी/एड्स, कुष्ठ और तपेदिक के रोगियों के लिए धर्मशालाएं/ घर शामिल थे और साथ ही सूप रसोई, बच्चों और परिवार के लिए परामर्श कार्यक्रम, अनाथालय और विद्यालय भी थे। मदर टेरसा की मृत्यु के बाद उन्हें पोप जॉन पॉल द्वितीय ने धन्य घोषित किया और उन्हें कोलकाता की धन्य की उपाधि प्रदान की।
ताउम्र सेवा का संकल्प
1981 ई में अग्नेसे ने अपना नाम बदलकर टेरेसा रख लिया और उन्होंने आजीवन सेवा का संकल्प अपना लिया। उन्होंने स्वयं लिखा है - वह 10 सितम्बर
1940 का
दिन
था
जब
मैं
अपने
वार्षिक
अवकाश
पर
दार्जिलिंग
जा
रही
थीं।
उसी
समय
मेरी
अन्तरात्मा
से
आवाज़
उठी
थी
कि
‘मुझे सब कुछ त्याग कर देना चाहिए और अपना जीवन ईश्वर एवं दरिद्र नारायण की सेवा कर के कंगाल तन को समर्पित कर देना चाहिए। ’
सद्भावना से पीड़ितों की सेवा
मदर टेरेसा दलितों एवं पीड़ितों की सेवा में किसी प्रकार की पक्षपाती नहीं है। उन्होंने सद्भाव बढ़ाने के लिए संसार का दौरा किया। उनकी मान्यता है कि ‘प्यार की भूख रोटी की भूख से कहीं बड़ी है। ’ उनके मिशन से प्रेरणा लेकर संसार के विभिन्न भागों से स्वयं-सेवक भारत आये तन, मन, धन से गरीबों की सेवा में लग गये। मदर टेरेसा का कहना है कि सेवा का कार्य एक कठिन कार्य है और इसके लिए पूर्ण समर्थन की आवश्यकता है। वही लोग इस कार्य को संपन्न कर सकते हैं जो प्यार एवं सांत्वना की वर्षा करें - भूखों को खिलायें, बेघर वालों को शरण दें, दम तोड़ने वाले बेबसों को प्यार से सहलायें, अपाहिजों को हर समय ह्रदय से लगाने के लिए तैयार रहें।
कई तरह के पुरस्कारों से सम्मानित
मदर टेरेसा को उनकी सेवाओं के लिये विविध तरह के पुरस्कारों एवं सम्मानों से विभूषित किया गया। 1931 में
उन्हें
पोप
जान
तेइसवें
का
शांति
पुरस्कार
और
धर्म
की
प्रगति
के
टेम्पेलटन
फाउण्डेशन
पुरस्कार
प्रदान
किया
गया।
विश्व
भारती
विघालय
ने
उन्हें
देशिकोत्तम
पद्वी
की
जो
कि
उसकी
ओर
से
दी
जाने
वाली
सर्वोच्च
पद्वी
है।
अमेरिका
के
कैथोलिक
विश्वविध्यलय
ने
उन्हें
डोक्टोरेट
की
उपाधि
से
विभूषित
किया।
भारत
सरकार
द्वारा
1962 में
उन्हें
‘पद्मश्री’
की
उपाधि
मिली।
1988 में
ब्रिटेन
द्वारा
‘आईर ओफ द ब्रिटिश इम्पायर’ की उपाधि प्रदान की गयी। बनारस हिंदू विश्वविध्यलय ने उन्हें डी-लिट की उपाधि से विभूषित किया। 19 दिसम्बर
1979 को
मदर
टेरेसा
को
मानव-कल्याण कार्यों के हेतु नोबल पुरस्कार प्रदान किया गया। वह तीसरी भारतीय नागरिक है जो संसार में इस सबसे बड़ी पुरस्कार से सम्मानित की गयी थीं।
मदर टेरेसा के हेतु नोबल पुरस्कार की घोषणा ने जहां विश्व की पीडित जनता में प्रसन्नता का संचार हुआ है, वही प्रत्येक भारतीय नागरिकों ने अपने को गौरवान्वित अनुभव किया। स्थान पर उनका भव्य स्वागत किया गया। नार्वेनियन नोबल पुरस्कार के अध्यक्ष प्रोफेसर जान सेनेस ने कलकत्ता में मदर टेरेसा को सम्मानित करते हुए सेवा के क्षेत्र में मदर टेरेसा से प्रेरणा लेने का आग्रह सभी नागरिकों से किया। देश की प्रधानमंत्री तथा अन्य गणमान्य व्यक्तियों ने मदर टेरेसा का भव्य स्वागत किया। अपने स्वागत में दिये भाषणों में मदर टेरेसा ने स्पष्ट कहा है कि ‘शब्दों से मानव-जाति की सेवा नहीं होती, उसके लिए पूरी लगन से कार्य में जुट जाने की आवश्यकता है।‘ उन्होंने यह भी घोषणा की है कि भविष्य में किसी प्रकार के स्वागत समारोह में सम्मिलित नहीं होंगी और निरंतर सेवा कार्य में लगी रहेंगी। निश्चित रूप से मदर टेरेसा निःस्वार्थ कार्य में विश्वास करने वाली हैं। कर्मयोग का जो दर्शन गीता में परिलक्षित होता है वह मदर टेरेसा के जीवन में चरितार्थ हुआ है।
आलोचना
कई व्यक्तियों, सरकारों और संस्थाओं के द्वारा उनकी प्रशंसा की जाती रही है, यद्यपि उन्होंने आलोचना का भी सामना किया है। इसमें कई व्यक्तियों, जैसे क्रिस्टोफ़र हिचेन्स, माइकल परेंटी, अरूप चटर्जी (विश्व हिन्दू परिषद) द्वारा की गई आलोचना शामिल हैं, जो उनके काम (धर्मान्तरण) के विशेष तरीके के विरुद्ध थे। इसके अलावा कई चिकित्सा पत्रिकाओं में भी उनकी धर्मशालाओं में दी जाने वाली चिकित्सा सुरक्षा के मानकों की आलोचना की गई और अपारदर्शी प्रकृति के बारे में सवाल उठाए गए, जिसमें दान का धन खर्च किया जाता था।
नवीनतम खबर है कि गरीबों की सेवा में अपनी जिंदगी
गुजारने वाली मदर टेरेसा को संत का दर्जा दिया जाएगा। पोप फ्रांसिस से उनके दूसरे
चमत्कार को मिली मान्यता के बाद उनके संत बनने का रास्ता साफ हो गया है। उन्हें
सितंबर 2016 में रोमन कैथोलिक चर्च का संत घोषित किया जाएगा।
इटालियन कैथोलिक न्यूजपेपर ने यह जानकारी दी है।
हालांकि, वेटिकन के स्पोक्सपर्सन ने इस रिपोर्ट के बारे
में कोई भी जानकारी होने से इनकार किया है। बता दें कि संत की उपाधि पाने के लिए
तय प्रक्रिया के तहत दो चमत्कारों की जरूरत होती है।
इटालियन कैथोलिक बिशप कॉन्फ्रेंस के ऑफिशियल
न्यूजपेपर एवेनर की वेबसाइट पर दी गई जानकारी के अनुसार, पोप फ्रांसिस ने गुरुवार को उनके दूसरे मेडिकल
मिरेकल (चमत्कार) को मान्यता दे दी। दूसरा चमत्कार ब्रेन ट्यूमर से पीड़ित ब्राजील
के एक व्यक्ति के इलाज से जुड़ा हुआ है।पहले चमत्कार के मुताबिक, मदर ने मोनिका बेसरा नाम की बंगाली ट्राइबल
महिला को पेट के ट्यूमर से मुक्ति दिलाई थी।
2003 में एक सेरेमनी के दौरान पोप जॉन पॉल द्वितीय
ने मदर के पहले चमत्कार को मान्यता देते हुए उन्हें धन्य घोषित किया था, जो संत बनाए जाने की प्रक्रिया का पहला चरण है।
मदर ने अपनी पूरी जिंदगी गरीबों की मदद में गुजारी।
कोलकाता में मिशन ऑफ चैरिटी की नींव रखने वाली टेरेसा ने यहां के स्लम्स में
गरीबों की सेवा में जीवन बिताया।
1979 में मदर को उनके काम के लिए नोबेल शांति पुरस्कार
से भी नवाजा गया। उनका हार्ट अटैक के कारण 5 सितंबर 1997 को 87 वर्ष की उम्र में निधन हो गया था।
आलोक कुमार
मखदुमपुर बगीचा,दीघा घाट,पटना।
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