Thursday 16 March 2017

जब जवानों को बैरंग वापस लौटना पड़ा

रांची।

 कोई 13 साल हो गये। सेना की गाड़ी आयी थीं। गाड़ी के सामने ही दीवार की तरह खड़ी हो गयीं महिलाएं। ऐसा प्रतीक हो रहा था मानों शाल वृक्ष हो गयी हैं और उसी शैली में अड़ गयी। महिलाओं ने मातृभूमि की रक्षा में नारा बुलंद करने लगीं । हम जान देंगे पर जमीन नहीं देंगे। फौजी भाइयों वापस जाओं... वापस जाओं....वापस जाओं। इस तरह के कार्य करके इतिहास रच दिये। आखिरकार फौजी 22 और 23 मार्च, 1994 को कूच कर गये। बुलंदी का असर ही सेना देखकर मनोबल गिराकर गाड़ी बेक कर लिये।

अब समय की मांग है कि हमलोग सीधे सादे आदिवासी। आखिरकार कबतक दूसरों इशारे और हित के लिए मांदर पर थिरकते रहेंगे? बाहरी उद्योगपतियों सदृश्य व्यक्तियों के स्वगत में थिरकते रहेंगे। उनका परम्परागत ढंग से स्वागत करते रहंेगे? अगर हम ऐसा ही करते रहेंगे तो एक समय ऐसा आने वाला है कि अपने ही धरती पर आनेवाले समय में नाचना लायक और पैर जमाने रखने के लिए भी जमीन नही होगी। जब हमलोगों के पास अपनी जमीन ही नही होगी तो कोई हमलोगों को पूछने वाला भी नही मिलेगा। हम आदिवासी लोग कीड़े-मकोड़े की तरह रौंद दिए जायेंगे। परम्परागत ढंग से जमीन, इलाका और प्राकृतिक संसाधन पर ही हम आदिवासियों का अस्तित्व टीका हुआ है। जमीन, जंगल, पहाड़, जलस्रोत और खनिज ख़त्म मतलब आदिवासीमन ख़त्म। झारखण्ड में भी अंग्रेज आ गये है, रघुवर दास की सरकार ने अंग्रेजों की तरह कार्य करना शुरू कर दी है। इस समय आदिवासी भाइयों को सजग होने की आवश्यकता है। जब हम सभी जागरूक रहेंगे तभी हमारी सुरक्षा सुनिश्चित रहेगी

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