काटजू के काट में लग गये
जी हां, समय-समय पर कोई हस्ति पटल पर आ ही जाते हैं। सामाजिक कार्यकर्ता हो, गांधीवादी विचारक हो, नौकरशाह हो, सत्ता में हो अथवा सत्ता से बाहर हो। कुछ हट के कार्य करना चाहते हैं। आप को स्मरण होगा कि शहंशा के रूप में कभी टी.एन.शैषन साहब आये थे। उन्होंने चुनाव आयोग के चुनाव आयुक्त के पद पर रहकर चुनाव प्रक्रिया में काफी परिवर्तन कर दिये हैं। जिनको लाभ मिलता है उसके लिए बटन दबाकर वोट देना (इलेक्ट्रोनिक्स मशीन) धन्य और जिसको अलाभ हुआ है उसके लिए अधन्य हो जाता है।
इस समय भारत के प्रथम व्यक्ति के द्वारा अपने कार्यकाल में दया की याचना को जल्दी-जल्दी निपटारा करके फांसी के फंदे पर पहुंचाने का काम रहे हैं। उसको भी लेकर अटकले लगाना शुरू कर दिया गया। उसे 2014 के आम चुनाव से भी जोड़ा जाने लगा है। उसी तरह अभी भारतीय प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष काटजू साहब प्रेस की आजादी पर बयान दिये हैं। उनके द्वारा आम आदमी के नोट के बल पर शासकीय के द्वारा जनतंत्र के आम आदमी की खबर को दबाने का कार्य किया जा रहा है। वहीं प्रिंट मीडिया के द्वारा शासकीय दल को महिमामंडित करने पर उतारू हो गया है। इस समय वहीं बिहार के इलेक्ट्रोनिक्स चैनल पर्दा उठाने में लगा हुआ है।
खैर, इसके पहले बिहार के अंदर मीडिया ने लालू-राबड़ी सरकार के 15 सालों को जंगल राज का अलाप लगाकर सत्ता से बेदखल कर दिया। कई मनगढंत खबरे भी बनाये और उड़ाये। जनता के समक्ष जंगल-जंगल की खेल खेले। जब वर्तमान समय में जनतंत्र के गला घोंटा जा रहा है। तो खासकर प्रिंट मीडिया खामोश है। केन्द्र सरकार से अधिकाधिक धन मांगने वाले नीतीश कुमार के द्वारा तयशुदा फंड खर्च नहीं कर पा रहे हैं। वितीय वर्श समाप्ति पर है। राशि खर्च नहीं की जा सकी है। कयास यहीं लगाया जा सकता है कि मार्च लूट निश्चित है।
साहब,आज भी बिहार जंगल राज की ओर अग्रसर है। आज कोई ऐसा दिन नहीं है जिस दिन हत्या और महिलाओं के साथ अत्याचार नहीं किया जाता हो। बुलंद आवाज नहीं उठाने के कारण सरकार के द्वारा सख्त कदम नहीं उठाया जा रहा है।
चतुर्थ स्तंभ को पाकसाफ करने के लिए ही काटजू साहब आवाज बुलंद कर रहे हैं। उनको कांग्रेस के वफादार बताने में विपक्ष लग गया है। वहीं सत्ताधारी के एक सांसद ने बिहार के चंद पत्रकारों के नाम गिना दिये कि वह बिकाऊं नहीं है। इस पर पत्रकार प्रवीण बागी जी कहते हैं कि उक्त सांसद को बताना चाहिए था कि यहां जो बिकाऊं नहीं है। तो जो बिकाऊं हैं तो उनको पैसा तो नहीं मिला। यह तमाम बिहारी पत्रकारों को बाजार में खड़ा कर दिये। एक तरह से पत्रकारों को अपमान कर गये जो ईमानदारी से पत्रकारिता करते हैं। जो अपने पथ और पग से अलग नहीं जाते हैं।
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