*श्रद्धालुओं के द्वारा मां गंगा नदी में उछाला सिक्का को खोजते बच्चे दिन भर पानी में नहाकर और खेल मस्ती करके ढूढ़ते सिक्के ।
सयानों के लिए
यह सब दिल
का मामला है।
यह सब विश्वास
का मामला है।
यह सब ‘पुण्य’
कमाने का मामला
है। वहीं बच्चों
के लिए यह
सब जुगाड़ टेक्नोलॉजी
का मामला है।
यह सब दो
जून की रोटी
जुगाड़ करने का
मामला है। यह
सब सरकार के
द्वारा शिक्षा के अधिकार
को बेहतर ढंग
से क्रियान्वित नहीं
करने का मामला
है। यह सब
पवित्र नदी गंगा
मइया के तट
पर दिख पड़ता
है। कोई घर
के भगवान को
खुश करने के
लिए अगरबत्ती, दीया,
कागज आदि व्यवहार
में लाने के
बाद जतन करके
आरार्ध्य समानों को बोरा
में रखते हैं।
कोई गंगा नदी
में स्नान करने
जाते हैं। तो
आरार्ध्य वाले रद्दी
समानों को ले
जाता है। इसे
पवित्र पावनी गंगा नदी
में विसर्जन कर
देता है। गंगा
नदी में डूबकी
लगाकर पाप धो
देता है। और
घर की गंदगी
को गंगा में
बहाकर गंदगी बहाकर
चला जाता है।
यही अंधविश्वास है।
यहीं सालों साल
से चलता आस्था
है। वहां पर
दिन भर पानी
में नहाकर और
खेल मस्ती करके
सिक्का ढूढ़ते बच्चों को
बोरा दे देते
हैं। ये बच्चे
बोरा में ही
किस्मत ढूढ़ने लगते हैं।
श्रद्धालुओं के द्वारा
भगवान को खुश
सिक्का जरूर मिल
जाता है। इस
बोरा में पांच
सिक्का मिला।
आज हमलोग 21 वीं सदी
में जी रहे
हैं। इस बीच
मेहनत मशक्कत करने
के कारण हमारी
पहचान देश-प्रदेश-विदेश में हो
चुकी है। हर
क्षेत्र में धमाकेदार
इंट्री हो चुकी
है। मगर इस
बीच हम लोग
कुछ संकुचित हो
गये हैं। इसके
कारण प्रत्यक्ष रूप
से मानव सेवा
करना ही भूल
गये। इसके कारण
हम लोग तो
देश की बागडौर
राजनीतिज्ञ पर और
समाज सेवा करने
की जिम्मेवारी एनजीओ
पर छोड़कर निश्चित
हो गये हैं।
इसके बाद आस्था
को मजबूत कर
दिये हैं। लोकआस्था
के नाम पर
देवताओं को खुश
करने लगते हैं।
उसी तरह ‘पुण्य’
कमाने के चक्कर
में विभिन्न नदियों
में सिक्का उछाल
देते हैं। क्रिकेट
में कप्तान सिक्का
उछालते हैं तो
उसका प्रयत्क्ष परिणाम
सामने आ जाता
हैं। सिक्का पक्ष
में आने के
कप्तान निर्णय लेता है
कि उसे क्या
करना है। गेन्दबाजी
अथवा बल्लेबाजी करें।
मगर लोकआस्था और
विश्वास के कारण
में सिक्का उछालने
से प्रत्यक्ष लाभ
नहीं मिलता है।
प्रत्यक्ष लाभ बच्चों
को मिलता है।
नदी में सिक्का
उछालने के बाद
बच्चे नदी से
सिक्का निकालने का जुगाड़
करने लगता है।
इन बच्चों ने
मछुआरे लोगों से सीख
ली है। जिस
तरह मछुआरे नदी
में जाल फेंकते
हैं। उसी तरह
बच्चे भी
करते हैं। इन
बच्चों ने चार-पांच चुम्बक
को जोड़कर रस्सी
में बांध लिये
हैं। चुम्बक के
सहारे नदी में
उछाले सिक्कों को
खोजते हैं। सिक्का
चुम्बक में सट
जाता है। इन
सिक्कों को बच्चे
बन्दरों से नकल
करके मुंह में
सिक्का जमा करने
लगते हैं।
राजधानी के पटना
क्लेक्ट्रिएट घाट की
बोलती तस्वीर है।
इसी घाट के
बगल में पटना
के क्लेक्टर डा.एन.सरवन
कुमार साहब का
कार्यालय है। रविवारीय
छुट्टी को छोड़कर
हरेक दिन कार्यालय
आतो हैं। कार्य
निपटारा करके चले
जाते हैं। जिला
भर के साहब
डी.एम. होते
हैं। इनके पास
बहुत काम है।
केवल लोकआस्था के
महान त्योहार महाछठ
के पूर्व घाटों
पर जाकर घाटों
का जायजा लेते
हैं। यह जगजाहिर
है कि संपूर्ण
बिहार में महापर्व
के अवसर पर
लोग साफ सफाई
पर विशेष ध्यान
देते हैं उसी
तरह से तैयारी
करते हैं कि
पर्ववर्तियों को गंदगी
से रिश्ता और
रू-ब-रू
होना नहीं पड़े।
अस्तागामी भगवान दिवाकर और
उदयीमान भगवान भास्कर को
अर्ध्यदान देने के
दूसरे दिन से
घाट के साथ
गांव तक गंदगी
का माहौल बन
जाता है। जो
साल भर जारी
रहता है।
साल भर किस
तरह से हम
लोग गंगा नदी
को गंदा करते
हैं। वह एक
फिल्मी गीत में
दर्शाया गया है
‘मां तेरी गंगा
मैली हो गयी
पापीयों के पाप
धोते-धोते’।
ऐसी मान्यता है
कि जो छोटे-बड़े पाप
किया जाता है।
वह गंगा नदी
में डुबकी लगाते
ही पापों से
मुक्ति पा लेता
है। अब अगर
कोई मां गंगे
पर फिल्मी गाना
बनाता है तो
उसे जरूर ही
इसे समावेश करना
ही होगा ‘मां
तेरी गंगा मैली
हो गयी श्रद्धालुओं
के द्वारा कूड़ा
फेंकने से’।
इसे प्रस्तुत करने
का मतलब नहीं
है कि श्रद्धालुओं
को ठेस पहुंचे।
मगर किस तरह
के लोकआस्था के
नाम पर अंधविश्वास
कार्य के तहत
ही घर के
कूड़ों को गंगा
नदी में बहाकर
पुण्य कमा रहे
हैं। इसे श्रद्धा
से मिट्टी खोदकर
गड्ढा में डाला
जा सकता है।
सुधि पाठक इसे
सौभाग्य कहे अथवा
दुर्भाग्य गंगा नदी
के किनारे जाने
का मौका मिला।
जो दृश्य देखा
गया वह कैमरे
में बंद करने
लायक ही था।
जो प्रस्तुत तस्वीर
है। वह तो
कभी झूठ नहीं
बोल सकती है।
श्रद्धालुगण घर में
भगवान का आराधना
और पूजा करते
हैं। भगवान को
खुश करने के
लिए उपयोग करने
वाले समानों को
संग्रह करते हैं।
उसे एक बोरा
में संग्रह करते
हैं। जब परिवार
से कोई गंगा
नदी में डूबकी
लगाने जाते हैं।
तो अपने घर
में बोरा में
रद्दी संग्रहित आरार्ध्य
समानों को लाते
हैं। गंगा घाट
में बच्चे नहाते
हैं। उनके हवाले
बोरा कर देते
हैं। बच्चों को
औपचारिकता में कह
देते हैं कि
बोरा को किनारे
से दूर ले
जाकर बहा दो।
इस आदेश को
पालनकर अवश्य ही बच्चे
बोरा को दूर
ले जाते हैं।
इसके साथ बच्चे
बोरा के साथ
यू टर्न हो
जाते हैं। इसके
बाद गंगा नदी
के किनारे ही
बोरा का मुंह
खोलकर आरार्ध्य कूड़ों
के ढेर से
किस्मत और पेट
पालने के जुगाड़
में जूट जाते
हैं। भले ही
देश-प्रदेश की
खोजी दस्ता दल
के द्वारा महाबोधि
मंदिर में आंतकी
हमलों के हमलावर
को खोज निकालने
में एक माह
से अधिक दिनों
के बाद असफल
हो रहे हैं।
वहीं बच्चे बोरा
का मुंह खोलकर
पैसा आदि की
खोज कर लेते
हैं। इस बोरा
में बच्चों को
पांच रूपए मिला।
इसके बाद बच्चे
अपने दैनिक कार्य
में लग जाते
हैं। गंगा नदी
में नहाने वाले
अथवा गंगा मइया
के दर्शन करने
वाले श्रद्धालु के
द्वारा गंगा नदी
में सिक्के फेंककर
पुण्य कमाते हैं।
जिस प्रकार गणेश
भगवान को दूध
पिलाकर दोनों हाथों से
पुण्य कमाएं थे।
भले ही पड़ोस
में कुपोषण के
शिकार
बच्ची को दूध
नहीं पिला पाते
हैं। लोकआस्था की
इस अंधी खेल
को प्रसार-प्रसार
करने में भले
ही करोड़ों रूपए
एसएमएस कर कॉपररेट
घरानों के जेब
भर देते हैं।
पास में पढ़ने
वाली राधिका कुमारी
को आगे की
पढ़ाई जारी रखने
के लिए फुट्टल
कौड़ी दे नहीं
पाते हैं।
कोई नदी के
किनारे बैठकर नदी में
पत्थर मारकर बहता
पानी में हल्फा
उत्पन्न कर गिनने
लगता है। उसे
हम लोग हल्फाखोर
कहते हैं। आज
गरीब परिवार के
लोग अपने मासूम
बच्चों को स्कूल
भेज नहीं पा
रहे हैं। इन
बच्चों को मिड
डे मील भी
रिझा न सका।
दो जून की
रोटी की तलाश
में लगे गरीब
परिजनों ने सरकार
के द्वारा लागू
शिक्षा के अधिकार
से अपने बच्चों
को लाभान्वित नहीं
करा सके। यह
सब आजादी के
66 साल के जश्न
मनाने के बाद
भी हो रहा
है। नदी में
सिक्का फेंककर ‘पुण्य’ कमाने
वाले श्रद्धालुओं के
द्वारा गंगा नदी
में उछाले सिक्कों
को पानी में
हेलकर कांदों में
से और रस्सी
में बांधकर चुम्बक
के सहारे सिक्का
निकालते हैं। बंदरों
से नकल करके
बच्चे सिक्कों को
मुंह में पैसा
जमा करने है।
ये पैसाखोर बच्चे
स्कूल नहीं जाते
हैं। दिन भर
जुगाड़ टेक्नोलॉजी से
200 रूपए कमा लेते
हैं। घर के
आरार्ध्य कूड़ों से,श्रद्धालुओं
को तट से
दूर जाकर बोतल
में पानी भरकर,
डूबकी लगाकर कीचड़
से सिक्का खोजकर
और चुम्बक में
सिक्का सट जाने
से कमाते हैं।
सब चुनौतीपूर्ण कार्य
है। इसी रकम
से घर में
परिजन चूल्हा जलाते
हैं।
आलोक कुमार