Friday 10 January 2014

क्या बंदूक के बगैर लोकतंत्र संभव है?



देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री नक्सल प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने नक्सलियों/ माओवादियों से बार-बार अपील करते हुए कहा है कि वे बंदूक छोड़कर लोकतंत्र का हिस्सा बनने और समाज की मुख्यधारा से जुड़े। वहीं माओवादियों की दुनियां में बेखौफ घुमने के लिए चर्चित केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश ने तो यहां तक कहा कि मोओवादियों के विचार और मुद्दे दोनों सही हैं लेकिन उनका रास्ता गलत है। क्या इसका मतलब यह समझा जाना चाहिए कि बंदूक को अलग कर देने से नक्सली/माओवादी सही हैं? अगर एैसा है तो सवाल यह भी है क़ि केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश जैसे नेताओं के ईर्द-गिर्द सुरक्षा के नाम पर बंदूक पकड़कर खड़े सुरक्षाकर्मी सही कैसे हो सकते हैं? क्या देश में Ÿाा चलाने के लिए ही बंदूक बनाया गया है? माओवादी भी तो वही कह रहे हैं कि वे बंदूक के बल पर देश में Ÿाा हासिल करेंगे और जिनके साथ अन्याय हुआ है उन्हें न्याय देंगे? इसलिए यहां सबसे महŸवपूर्ण प्रश्न यहा होना चाहिए कि क्या बंदूक के बगैर लोकतंत्र संभव है?
अब बात लोकतंत्र के महापर्व ‘‘चुनावसे शुरू किया जाये। क्या इस देश के आम चुनाव का एक भी ऐसा उदाहरण है जो बिना बंदूक, गुंडा और पैसा का हुआ हो? आजकल तो हद यह हो गई है कि एक मामूली सा वार्ड सदस्य को भी लोग ईमानदारी से नहीं चुन सकते हैं। उसे भी पैसा, बंदुक और गुंडा का सहारा लेना पड़ता है। क्या इन तीनों चीजों के बगैर चुनाव की परिकल्पना की जा सकती है? यानी यह कहना अतिश्योक्ति नहंी होगा कि बंदूक के बगैर लोकतंत्र का महापर्व नहीं मनाया जा सकता है यानी बंदूक लोकतंत्र का एक विशिष्ट हिस्सा बना चुका है। क्या देश में ऐसा कोई नेता है जिनके इर्द-गिर्द बंदूक नहीं दिखाई देता हो? आजकल तो धर्मगुरू जो लोगों को दिन-रात शांति का पाठ पढ़ाते हैं और वोट बैंक को प्रभावित करते हैं वे भी बंदूक रखते हैं। क्या इससे यह ही समझा जा सकता है कि बंदूक की अहमियत कितनी है?
देश, राज्य या किसी जिले में प्रशासन चलाने की बात कर लीजिए तस्वीर साफ हो जायेगी। यह बात करना इसलिए जरूरी है क्योंकि सरकार बंदूक उठाकर न्याय की लड़ाई लड़ने वालों नक्सली/माओवादियों को बंदूक छोड़कर मुख्यधारा में शामिल करना चाहती है। यानी बंदूक ही उन्हें मुख्यधारा से अलग करती है। सवाल यह है कि क्या बंदूक के बगैर देश, राज्य या जिले में एक दिन भी सरकार चल सकती है? लोग कह सकते हैं कि कई राज्य नक्सल प्रभावित है जहां बिना सुरक्षा बल के जाना संभव नहीं है लेकिन क्या कोई यह बता सकता है कि नक्सलवाद की उत्पति से पहले बिना बंदूक के बगैर सरकार चलती थी? इसका मतलब यह है कि बंदूक ही है जिसे सरकार चलती है। जब बंदूक में इतनी ताकत है तो फिर कोई बंदूक क्यों छोड़ना चाहेगा? प्रश्न यह भी है जब सरकार नक्सली/माओवादियों को बंदूक छोड़कर मुख्यधारा में शामिल होने की अपील करती है तो फिर मुख्यधारा से जुड़े ताकतवर लोगों के पास बंदूक कैसे है? उन्हें क्यों मुख्यधारा का हिस्सा माना चाहिए?
देश में औद्योगिक विकास की तस्वीर बंदूक की गोली से लहुलूहान है, जहां संसद द्वारा बनाया गया कानून को ताक पर रखकर सरकारों ने बंदूक के बल पर आदिवासी और अन्य रैयतों की जमीन छिन ली है। जब लोग संविघान के अनुच्छेद 19 का उपयोग करते हुए पेसा कानून, वन अधिकार कानून या जमीन संबंध कानूनों को लागू करने की मांग करते हैं तो उनके उपर गोली चलायी जाती है, जिसके सैकड़ों उदाहरण हमारे देश में मौजूद हैं। यह बात कैसे कोई भूल सकता है कि 19 आदिवासियों को उड़िसा के कलिंगनगर में टाटा कंपनी को जमीन देने के लिए गोलियों से उड़ा दिया गया? झारखंड के कोईकारो, काठीकुंड और गुआ गोली कंड आज भी आदिवासियों के जेहान में गुंजता है। बंदूक का दुरूपयोग किस तरह से सरकारी तंत्र करती है यह किसी से छुपी हुई है क्या? फिर देश के नेता लोकतंत्र के नाम पर लोगों को क्यों गुमराह करते हैं?
यहां सवाल यह भी है कि क्या बंदूक हिंसा का प्रतीक है या शांति का चिन्ह? अगर यह हिंसा का प्रतिक है तो स्वाभाविक है कि बंदूक पकड़ने वाले सभी हिंसक होंगे चाहे बंदूक पकड़ने वाला पुलिस सेना की वर्दी में हो यह नक्सली लिबास में? यह कैसे संभव है कि सुरक्षा बलों के बंदूक से शांति निकले और नक्सलियों/माओवादियों के बंदूक से हिंसा? कानून देखें तो अंतर सिर्फ इतना है कि सरकार ने ताकतवर लोगों को बंदूक पकड़ने के लिए लाईसेंस निर्गत किया है और गरीब लोग बिना लाईसेंस का बंदूक उठाये हुए हैं क्योंकि उन्हें लाईसेंस ही नहीं मिलेगा। पहला सवाल उनसे पूछा जायेगा कि उन्हें बंदूक किस लिए चाहिए? क्या उन्हें झोपड़ी, गाय-बकरी और मुर्गी की सुरक्षा के लिए बंदूक की जरूरत है? और अगर वे लाईसेंसी बंदूक भी रख लेते हैं तो उनका जेल जाना या उनसे बंदूक लुटना तय है।
इतिहास बताता है कि हम बंदुक के उपयोग पर काफी स्लेक्टिव हैं। अगर बंदूक का उपयोग ताकतवर लोग करें तो वह गुनाह नहीं है लेकिन गरीब इसका उपयोग नहीं कर सकते हैं। गरीबों के पास बंदूक मतलब अपराध से वास्ता क्योंकि गरीब व्यक्ति उस बंदूक का उपयोग उन ताकतवर लोगों के खिलाफ करेगा, जिन्होंने उसका शोषण किया है। ऐसा देखा जाये तो बंदूक किसके पास होता था? गांवों में कौन बंदूक रखता था? या तो गांव का मुखिया या दबंग व्यक्ति। अगर किसी कमजोर व्यक्ति के पास बंदूक है तो उसे दबंग छिन लेता था इसलिए गरीब लोग डर से भी बंदूक नहीं रखते थे।
चूंकि चर्चा दुनियां के महान लोकतंत्र से जुड़ा हुआ है इसलिए यहां यह भी रेखांकित करना जरूरी होगा कि जब देश के नेताओं पर बंदूक से हमला होता है तो उसे लोकतंत्र पर हमला कहा जाता है। छत्तीसगढ़ की घटना इसका ज्वलंत उदाहरण है। लेकिन जब वही हमला आम जनता या सुरक्षा बलों पर होता है तब उसे लोकतंत्र पर हमला नहीं कहा जात है। बल्कि उसे प्रतिदिन घटने वाला आम मामला के रूप में देखा जाता है। यह कैसा लोकतंत्र है जिसमें सिर्फ चुने हुए लोग लोकतंत्र बन जाते हैं और शेष लोगों की कोई अहमियत नहीं होती है? क्या आम जनता के हाथ में लोकतंत्र सिर्फ पांच वर्षों में एक दिन रहता है और बाकी दिनों में वे लोकतंत्र के शिकार बन जाते हैं? उन्हें अपनी चुनी हुई सरकार की पुलिस लाठी-डंडा से पीटती है, गोली चलाती है और यातना देती है।
हमारे देश में सत्ता का विकेन्द्रिकरण आधुनिक लोकतंत्र का सबसे बड़ा सकारात्मक योगदान है लेकिन वहीं इस लोकतंत्र ने भ्रष्टाचार को प्रत्येक व्यक्ति, परिवार और गांव के अन्दर घुस दिया है। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर नेता वोट खरीदते हैं और वोटर वोट बेचना है, जिसमें पूंजीपति शेयर बाजार की तरह पैसा लगाते हैं। इसे लोकतंत्र की निर्मम हत्या नहीं तो और क्या कहेंगे? चुनाव बीतते ही नेता खास और वोटर आम आदमी हो जाता है। और वहीं पर लोकतंत्र समाप्त हो जाती है और पांच वर्षो तक पूंजीपतिंया के हित में सारा तंत्र खड़ा हो जाता है। पूंजीपतियों को मुनाफा पहुंचाने के लिए नये-नये नीति, नियम और कानून बनाया जाता है तथा जनहित में बने कानूनों को ताक पर रख दिया जाता है। लोकतंत्र का सही अर्थ लोगों का, लोगों के लिए और लोगों के द्वारा सिर्फ सिद्धांतों में ही रह जायेगा? क्या देश के नेताओं के पास इसका जवाब है?
हकीकत यह है कि राज्य का गठन (स्टेट फोरमेशन) ही बंदूक के बल पर हुआ है। यानी राज्य की बुनियाद ही हिंसा पर टिकी हुई है। इसलिए इस लोकतंत्र से शांति की उम्मीद करना बेईमानी है। चाहे नेता लोग कुछ भी कह दे लेकिन क्या आधुनिक लोकतंत्र बंदुक के बगैर संभव है? आज प्रत्येक गरीब, दलित और आदिवासियों को यह क्यों लगने लगा है कि इस लोकतंत्र में उन्हें कभी भी न्याय नहीं मिलेगा जबतक कि वे स्वयं सत्ता हासिल नहीं करते हैं? क्या दुनियां के महान लोकतंत्र को इसका जवाब नहीं देना चाहिए? आज गरीब लोग सत्ता हासिल करने के लिए बंदूक का सहारा ले रहे हैं क्योंकि उनके पास वोट खरीदने के लिए पैसा नहीं है और बुथ कब्जा करने के लिए गुंडे पालने की उनकी हैसियत भी नहीं है। क्योंकि माओवादी/नक्सलियों उन्हें मुफ्त में बंदूक और प्रशिक्षण दे रहे हैं इसलिए वे उनके संगत में चले जा रहे हैं जो निश्चित तौर पर लोकतंत्र के लिए खतरा है। लेकिन फिर वही सवाल होगा कि किस लोकतंत्र के लिए? लोकतंत्र तो बंदूक से ही चलती है क्योंकि जो लोकतंत्र बंदूक, पैसा और गुंडा के बगैर चलती थी उसे देश के नेताओं ने माना ही नहीं।
आदिवासी नेता जयपाल सिंह मुंडा ने संविधानसभा में देश के नेताओं से कहा था कि आप हमें लोकतंत्र का पाठ नहीं पढ़ा सकते हैं क्योंकि हमारे यहां लोकतंत्र सदियों से मौजूद है। आदिवासी लोग अपना नेता चुनने के लिए तो पैसा और ही बंदूक का उपयोग करते हैं। लेकिन देश ने आदिवासियों की एक सुनी जिसका परिणाम यह हुआ कि आधुनिक लोकतंत्र ने प्रकृति और समाज दोनों को खोखला कर दिया। दुनियां में बंदूक के बगैर जीवित लोकतंत्र सिर्फ आदिवासी समाज के पास मौजूद है इसलिए जो लोग सही मायने में लोकतंत्र को साफ-सुथरा करना चाहते हैं उन्हें आदिवासियों से लोकतंत्र सीखना चाहिए क्योंकि सही लोकतंत्र की स्थापना आदिवासियों को नाकार कर नहीं हो सकती है।

- ग्लैडसन डुंगडुंग मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं।