कोलकाता
के एक प्रसिद्ध विद्वान अधिवक्ता
ने ‘ईकोलॉजी इकोनोमी’
नामक पुस्तक के
लोकार्पण समारोह में देश
के तथाकथित सभ्यता,
शिक्षित और विकसित
समाज की एक
विचित्र हकीकत को हमारे
सामने रखने की
हिम्मत जुटाई, जिसकी जितनी
भी तारीफ की
जाये कम है।
उन्होंने बताया कि वे
अपनी पत्नी के
साथ एक बंगले
में रहते हैं,
जहां उनके लिए
तीन आधुनिक चारपहिया
वाहन हैं। वे
दोनों कामकाजी हैं
इसलिए दो चारपहिया
वाहनों की जरूरत
के बारे में
तो उन्हें पता
है लेकिन तीसरी
वाहन की उपयोगिता
के बारे में आजतक
उनके समझ में
नहीं आया। वे
कहते हैं कि
उनके पास पैसा
है, जिसका वे
‘ऑवर कंज्यूम’ यानी
जरूरत से ज्यादा
उपभोग कर रहे
हैं जबकि उस
पैसे से वे
एक बेहतर जिन्दगी
जीते हुए अन्य
जरूरतमंदों के जीवन
को भी बेहतर
बनाने में एक
बड़ी भूमिका निभा
सकते हैं। यह
विषय गंभीर इसलिए
है क्योंकि देश
में ऐसे करोड़ों
लोग हैं जो
जरूरत से ज्यादा
उपभोग कर रहे
हैं जबकि वहीं
दूसरी ओर करोड़ों
गरीब लोग हैं
जो सही से
दो वक्त अपना
पेट नहीं भर
सकते हैं। क्या
यह हमारे देश
की सबसे बड़ी
विडंबना नहीं है?
दुनियां
को विकासवादी सिद्धांत
देनेवाले वैज्ञानिक चार्ल्स डारविन
के वंशज प्रसिद्ध
समाजशास्त्री फेलिक्स पडेल ने
‘इकोलॉजी इकोनोमी’ पुस्तक को
ऐसे समय में
दुनियां के पटल
पर रखा है
जब विश्व के
अधिकांश देश
‘ग्रीड बेस्ड मार्केट इकोनोमी’
(लालच पर आधारित
बाजारू अर्थव्यवस्था) को अपनाने
की वजह से
भारी आर्थिक संकट
के दौर से
गुजर रहे हैं।
यह पुस्तक आदिवासी
अर्थदर्शन पर लिखी
गई है, जिसका
मूल सार यह
है कि धरती
और मानव सभ्यता
को बचाने के
लिए ‘इकोलॉजी इकोनोमी’
और ‘मार्केट इकोनोमी’
दोनों में से
एक को चुनना
ही होगा क्योंकि
ये दोनों एक
दूसरे के विपरीत
हैं। इकोलॉजी इकोनोमी
को अपनाने से
लोग अपने साथ
धरती को भी
बचा लेंगे लेकिन
जबकि मार्केट इकोनोमी
धरती के साथ
मानव सभ्यता का
अस्तित्व को समाप्त
कर देगा क्योंकि
इसे बरकरार रखने
के लिए प्राकृतिक
संसाधनों को पैसे
में बदलना होगा
और इस प्रक्रिया
में इकोलॉजी बड़े
पैमाने पर प्रभावित
होगी, धरती गर्म
होती चली जायेगी
और बर्फ पिछलेगा,
जिसे धरती पर
कयामत आना तय
है। लेकिन लोगों
के लिए सबसे
बड़ी चुनौती यह
है कि अगर
वे इकोलॉजी इकोनोमी
को चुनते हैं
तो विलासिता भरा
जिन्दागी को उन्हें
हमेशा के लिए
तोबा करना पड़ेगा,
जो बहुसंख्यक आबादी
के लिए असंभव
नहीं तो मुश्किल
जरूर है।
लेकिन
यहां प्रश्न यह
भी है कि
क्या दुनियां सिर्फ
इकोलॉजी इकोनोमी से चल
सकती है? क्या
दुनियां में मार्केट
इकोनोमी की जरूरत
नहीं होगी? क्या
इंसान को वर्तमान
विकास प्रक्रिया को
छोड़कर पाषण काल
की ओर मुड़
जाना होगा? क्या
धरती को बचाने
के लिए हमारे
पास दूसरा रास्ता
नहीं है? और
क्या हमलोग मूलभूत
सुविधाओं से वंचित
हो जायेंगे? इन
प्रश्नों का जवाब
ढ़ूढ़ने के लिए
‘इकोलॉजी इकोनोमी’ यानी परिस्थितिकी
पर आधारित अर्थव्यवस्था
को समझाना होगा
क्योंकि इकोलॉजी में इकोनोमी
समाहित है, जिसे
दुनियां ने नाकार
दिया है। फलस्वरूप,
दुनियां आर्थिक संकट, ग्लोबल
वार्मिंग, ग्लोबल कूलिंग जैसे
समस्याओं से घिरता
जा रहा है,
जिसने धरती के
अस्तित्व पर ही
सवाल खड़ा कर
दिया है। इकोलॉजी
इकोनोमी असल में
नीड बेस्ड यानी
जरूरत पर आधारित
अर्थव्यवस्था है। दुनियां
के विद्वान अर्थशास्त्री
इसे कम्यूनिटी इकोनोमी
(सामुदायिक अर्थव्यवस्था) कहते हैं,
जिसे हमेशा से
ही नाकारात्मक दृष्टि
से देखा गया
क्योंकि इसमें जरूरत के
अनुसार अवश्यक चीजों को
इकट्ठा कर आपस में
आदान-प्रदान किया
जाता है और
सेवा तो बिल्कुल
मुफ्त में मिलता
है जबकि मार्केट
इकोनोमी में गुड्स
और सर्विसेस दोनों
के लिए कीमत
चुकानी पड़ती है,
जिसमें एक व्यक्ति
मुनाफा कमाकर औद्योग खड़ा
कर लेता है
और इस तरह
से आर्थिक असमानता
बढ़ती जाती है।
इकोलॉजी
इकोनोमी दुनियां में सिर्फ
आदिवासियों की बीच
मौजूद है। वे
प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग
अपने रोजमर्रा की
जरूरतों को पूरा
करने के लिए
हैं जबकि मार्केट
इकोनोमी में जीने
वाले लोग प्राकृतिक
संसाधनों का दोहन
मूलतः मुनाफा कमाने
के लिए करते
हैं क्योंकि मार्केट
इकोनोमी का मूल
आधार ही प्रोफिट
है। मार्केट इकोनोमी
हमें प्रत्येक चीज
को मुनाफा के
नजरिये से देखना
सीखाता है। फलस्वरूप,
आजकल लोग रिश्तों
को भी नफा-नुकशान के तराजू
में तौलते हैं,
जिसे खासकर महिलाओं
के खिलाफ बड़े
पैमाने पर हिंसा
हो रही है।
इकोलॉजी इकोनोमी का एक
बेहतर नमूना सारंडा
जंगल में दिखाई
देता है, जहां
‘हो और मुंडा’
आदिवासी लोग निवास
करते हैं। वे
अपना घर-बारी
इत्यादि बनाने के लिए
सखुआ और अन्य
पेड़ों को उपयोग
करते हैं लेकिन
पेड़ काटकर मुनाफा
नहीं कमाते हैं।
फलस्वरूप, वहां कई
दशक पुराना सखुआ
का पेड़ दिखाई
देगा जबकि वहीं
टिंबर माफिया और
वनविभाग के अधिकारी
सखुआ के पेड़
चोरी-छुपे काटवाकर
लाखों के वारे-न्यारे कर रहे
हैं।
मार्केट
इकोनोमी दुनियां में लालच
को बढ़ावा दे
रहा है, जिससे
जरूरत से ज्यादा
उपभोग करने की
प्रवृति बढ़ती जा
रही है, जिसे
उपभोगतावादी संस्कृति को बढ़ावा
मिल रहा है
और दुनियां के
छोटे-छोटे जगहों
पर मौजूद साम्यवाद
पर भी खतरा
मंडरा रहा है।
ऐसा दिखाई पड़
रहा है कि
दुनियां लालच पर
आधारित अर्थव्यवस्था में डूब
मरना चाहता है,
जो असल में
चुहा दौड़ है।
हमारे देश में
उदारीकरण से पहले
यहां का बाजार
लोगों के जरूरतों
के हिस्साब से
वस्तुओं का उत्पादन
करता था लेकिन
उदारीकरण के बाद
वस्तुओं का उत्पादनकर
रंगीन विज्ञापनों के
द्वारा लोगों को उसकी
जरूरत महसूस करायी
जाती है। इस
तरह से उपभोक्ता
तय नहीं कर
पाते हैं कि
क्या अमुक वस्तु
उनके लिए सही
में जरूरी है?
इसमें बड़े पैमाने
पर बच्चों और
महिलाओं के भावनाओं
का उपयोग कर
उन्हें ऑवर कंज्यूम्पशन
के लिए प्रेरित
किया जाता है,
जिससे कंपनियों को
बेहिसाब मुनाफा मिलती हैं।
इस तरह से
व्यक्ति, परिवार और समुदाय
की अर्थव्यवस्था चौपट
हो रहा है
और जरूरत से
ज्यादा उत्पादन करने के
कारण इकोलॉजी को
भी भारी क्षति
पहुंच रहा है।
वहीं
दूसरी ओर जंगलों
के बीच में
निवास करने वाले
आदिवासी इकोलॉजी इकोनोमी के
साथ जी रहे
हैं, जिन्हें विकास
और आर्थिक तरक्की
के नाम पर
लालच आधारित बाजारू
अर्थव्यवस्था के ढाकेलने
की पूरी कोशिश
की जा रही
है। ओड़िसा स्थित
नियमगिरी के आदिवासियों
ने कहा कि
उन्हें कार की
जरूरत ही नहीं
है तो वे
वेदांता कंपनी का पैसा
लेकर क्यों कार
खरीदेंगे? इसी तरह
पोटका के आदिवासियों
ने भी कहा
कि उनके गांवों
में विद्यालय है,
स्वस्थ्य सुविधा उपलब्ध है,
गांव में बिजली
है, सड़क भी
है और उनकी
आर्थिक स्थिति भी अच्छी
है। वे अच्छी
तरह से जीवन
जी रहे हैं
इसलिए जिंदल और
भूषण कंपनी को
जमीन नहीं देंगे।
लेकिन क्या प्रकृति
का सौदा करनेवाले
इसे समझ पायेंगे?
वे तो उल्टे
आदिवासियों को ही
बेवकूफ कहने से
नहीं चुकते? राष्ट्रपिता
महात्मा गांधी ने कहा
कि प्रत्येक व्यक्ति
की जरूरतों को
पूरा करने के
लिए धरती में
चीजें पर्याप्त हैं
लेकिन उनके लालच
को पूरा करने
के लिए यह
पर्याप्त नहीं है।
क्या
यह विडंबना नही
है कि उद्योगपति
मुकेश अंबानी का
छः सदस्यी एक
परिवार 4400 करोड़ से
निर्मित 27 मंजिला मकान में
रहता है जबकि
देश में करोड़ों
लोगों के पास
रहने के लिए
मकान नहीं है
और हमलोग मुकेश
अंबानी को ही
विकास का मॉडल
मानते हैं इसलिए
लाखों लोग उसी
रेश में दौड़
रहे हैं? देर
हो या सबेर
लेकिन उत्ताराखंड की
त्रासदी ने यह
संकेत दे दिया
है कि लालचभरा
अर्थव्यवस्था में जीने
वाले लोग आदिवासियों
को ‘बोका’ तो
बोल सकते हैं
लेकिन प्रकृति के
साथ नहीं लड़
सकते हैं। प्रकृति
समय के अनुरूप
बड़े-बड़े इकोनोमिक
और डेवलॉपमेंट थ्योरी
को बदल देती
है। ऐसी परिस्थिति
में दुनियां, मानव
सभ्यता और अन्य
जीवित प्राणियों को
बचाने के लिए
ईकोलॉजी ईकोनोमी को अपनाना
ही होगा क्योंकि
आदिवासी अर्थ दर्शन
के अलावा धरती
को बचाने का
दूसरा रास्ता नहीं
है। आवश्यकता अविष्कार
की जननी है
और आवश्यकताएं अनंत
हैं। इसलिए हमें
यह तय करना
ही होगा कि
मानव सभ्या और
प्रकृति दोनों के बीच
संतुलन बनाकर रखने के
लिए आवश्यकताओं की
चादर कितनी दूर
तक फैलायी जाये।
भगवान बुद्ध ने
कहा कि लालसा
ही मनुष्य के
दुःख का कारण
है लेकिन क्या
हम इसे समझने
को तैयार है?
- ग्लैडसन
डुंगडुंग मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं।